जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, अक्तूबर 22, 2011

सच्ची चाह का स्वरुप

१.सच्ची चाह का स्वरुप यह है कि फिर चाही हुई वस्तु के बिना जीना कठिन हो जाता है | सच्ची चाह का स्वरुप होता है अनिवार्य आवश्यकता | उस एक वास्तु के सिवा और किसी कि चाह चाह तो बहुत पहले विदा हो जाती है | जब प्रेमी अपने इष्ट के बिना नहीं रह सकता तो उसे दर्शन देना ही पड़ता है | फिर खाना -पीना, सोना - जगना, उठाना-बैठना सभी बहार हो जाता है | सच्ची छह उत्पन्न होने के बाद फिर दर्शनों में देरी नहीं लगती|
२. सच्ची चाह निष्काम होनी चाहिए - इसमें तो कहना ही क्या है ? यदि हमें भगवान् से उनके सिवा कुच्छ और लेने कि लालसा होगी तो वे उसे ही देंगे , अपनेको क्यों देंगे ? पूर्वकाल में सकाम उपासना करने वालों को भी दर्शन हुए हैं | परन्तु उस प्रकार के दर्शन भगवत्प्रेम कि तत्काल वृद्धि नहीं करते| उन्हें दर्शानादी यथार्थ प्राप्ति प्राय: नहीं होती | वे केवल भोग या मोक्ष ही पा सकते हैं , प्रेम नहीं |
३. चाह को बधानेका एकमात्र उपाय यही हा कि भोगों को अनित्य और दुखोत्पदक समझकर उनकी सब इच्छाएं छोड़ दी जाएँ | जबतक दूसरी कोई भी कामना रहेगी तबतक भगवत प्राप्ति कि उत्कंठा तीव्र नहीं होती |
४. निरंतर ध्यान के लिए तो निरंतर ध्यान की ही जरुरत है | जहाँ काम और मोक्ष और ध्यान दोनों हैं , वहां तो दोनों ही रहेंगे | एक साथ दो बातें कसी रहेंगी ? तथापि जबतक वैसी लगन नहीं लगी है तबतक आफिस के काम को भी उन्हीं का काम समझकर कीजिये और काम करते हुए यथासंभव उनका नाम-जप और चिंतन भी चलाइये |
५. सोते हुए जप या ध्यान कैसे हो सकता है ? निद्रा और जप एक काल में तो रह ही नहीं सकते | निद्रा में वृति लीं रहती है और उस विषय में लीं रहती है जो निद्रा आने के ठीक पूर्व क्षण तक रहता है | अत: जप-ध्यान करते- करते सो जाईये | एसा करने से जब आप उठेंगे तब भी आप को मालूम होगा की उठते ही पुन: वाही जप और ध्यान आरम्भ हो गया है | क्योंकि वृति जिसमें लींन होती है , उसीसे उदित भी होती है | एस प्रकार निद्रके आगे -पीछे जप का सम्पुट रहने से निद्राकाल में भी मन जप में ही लीन रहेगा |
page no - 61 , from महत्त्व पूर्ण प्रश्नोत्तर

शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2011

ईश्वर को कैसे पुकारें

{गत ब्लाग से आगे}
और पुकार कर कहें -
"हे हरे ! आपसे बढ़कर कोई परम दयालु नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई सोचनीय नहीं है | यदुनाथ! ऐसा समझकर मुझ पामर के लिए जो उचित हो वह कीजिये |"
"भगवन ! आषाढ़ मास के दिन की भांति मेरे पाप बढ़ते चले जाते हैं , शरद ऋतुकी नदी के जल की तरह शारीरिक शक्ति क्षीण होती जा रही है , दुष्टों द्वारा किये हुए अपमान के सामान दुःख मेरे लिए दु:सह हो गए हैं | हाय ! मैं सब तरह से असमर्थ हूँ , अशरण हूँ , दयामय ! मुझपर कृपा कीजिये |"
"स्वामिन मैं अज्ञानी हूँ, मेरी बुद्धि मंद है , अत: मैं वैसी चिकनी चुपड़ी बातें नहीं कर सकता जिस से आपका कृपा पात्र बन सकूँ | मैं तो आर्त हूँ , अशरण हूँ , और दीन हूँ ; मैंने केवल क्रन्दन किया है | आप एस क्रन्दन पर ही ध्यान देकर शीघ्र दर्शन दीजिये | और मुझ भाग्य हीन के मस्तकपर अपने चरण रखिये |"
"हरे ! मुरारे ! प्रभो ! एक मात्र आप ही मेरे आश्रय हैं | मधुसुदन! वासुदेव ! विष्णो ! आपकी जय हो ! नाथ ! मुझसे निरंतर असंख्य पाप होते रहते हैं ; मुझे कहीं भी गति नहीं है | जगदीश ! मरी रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये |"
इस प्रकार सच्चे मन से रोकर, कातर पुकार करने से मंगलमय भगवान् अवश्य सुनते हैं |
from- महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर् page- 35

गुरुवार, अक्तूबर 20, 2011

ईश्वर को कैसे पुकारें

ईश्वर के विरह में रुन्दन स्वभावत: होना चाहिए | रोना और हँसना सीखना नहीं पड़ता | अत्यंत प्रिय के विछोह का अनुभव प्राणों को बरबस रुला देता है | अभी तो हमने संसार के सगे सम्बन्धियों को ही प्रिय मान रखा है | धन और भोगों के प्रति हमारा अधिक आकर्षण है | ऐसी दशा में भगवन के लिए हम व्याकुल कैसे हो सकते हैं ? हम जानते हैं और सदा देखते हैं कि संसार के धन- भोग क्षणभंगुर हैं - आज  हैं , कल नहीं | इसी प्रकार यहाँ के सगे -सम्बन्धि  यहाँ के भोग  यहाँ तक कि यह शरीर भी मृत्यु के बाद साथ छोड़ देता है । प्रत्येक अवस्था में यदि कोइ साथ देता है तो वो है परम करुणामय भगवान। उनकी दया इतनी है कि वे सबको अपनी शरण में आने के लिये स्वयं पुकार रहे हैं। एक हम हैं , भगवान को पुकारना, उनके लिये रोना तो दूर रहा, उनके प्रिय आह्वानतकको नहीं सुनते या सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। जो हमारे आत्माके भी आत्मा हैं, प्रणों के भी प्राण हैं, जिनसे बढ़कर कोई प्रियतम नहीं है, वे हमसे दूर नहीं हैं। हम उन्हें प्राणमें भी निहार न सकें, अपने प्रेमाश्रुओंसे उनके चरण पखार न सकें-- यह कितने दु:ख की बात है। हमें यह विरह इसलिये मिला है कि हम प्रभु से मिलने के लिये रोयें, तड़्पें, अश्रुओंके मॊक्तिक हार से उनकी सादर अर्चना करें , 
from- महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर् page- 35
{शेष अगले ब्लाग में}   

बुधवार, अक्तूबर 19, 2011

एक भरोसो तेरौ अब हरि! एक भरोसो तेरौ।

एक भरोसो तेरौ
अब हरि! एक भरोसो तेरौ।
नहिं कछु साधन ग्यान-भगति कौ,
नहिं बिराग उर हेरौ॥
अघ ढोवत अघात नहिं कबहूँ, मन बिषयन
कौ चेरौ।
इंद्रिय सकल भोगरत संतत, बस न चलत
कछु मेरौ॥
काम-क्रोध-मद-लोभ-सरिस अति प्रबल
रिपुन तें घेरौ।
परबस पर्यौ, न गति निकसन
की जदपि कलेस घनेरौ॥
परखे सकल बंधु, नहिं कोऊ बिपद-काल
कौ नेरौ।
दीनदयाल दया करि राखउ, भव-जल बूड़त
बेरौ॥
प्रेम भगति निष्काम
चहौं बस एक यहीं श्रीराम।
अबिरल अमल अचल अनपाइनि प्रेम-
भगति निष्काम॥
चहौं न सुत-परिवार, बंधु-धन, धरनी,
जुवति ललाम।
सुख-वैभव उपभोग जगत के चहौं न
सुचि सुर-धाम॥
हरि-गुन सुनत-सुनावत कबहूँ, मन न होइ
उपराम।
जीवन-सहचर साधु-संग सुभ, हो संतत
अभिराम॥
नीरद-नील-नवीन-बदन अति सोभामय
सुखधाम।
निरखत रहौं बिस्वमय निसि-दिन, छिन

न लहौं बिश्राम॥


-श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार

साधना का स्वरूप भाईजी के अनुसार

१.भगवत्प्रेम ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझना और इसे हर हालतमें निरन्तर लक्ष्य में रखकर ही सब काअम करना।
२.जहाँतक बने, सहज ही स्वरूपतः भोग-त्याग तथा भोगासक्तिका त्याग करना। जगत् के किसीभी प्राणी पदार्थ-परिस्थितिमें राग न रखना।
३. अभिमान,मद,गर्व आदिको तनिक-सा भी आश्रय न देकर सदा अपने को अकिञ्चन, भगवानके सामने दीनातिदीन मानना।
४.कहीं भी ममता न रखकर सारी ममता एकमात्र भगवान प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणोंमें केन्द्रित करना।
५.जगतके सारे कार्य उन भगवानकी चरण-सेवाके भावसे ही करना।
६.किसीभी प्राणीमें द्वेष-द्रोह न रखकर, सबमें श्रीराधामाधवकी अभिव्यक्ति मानकर सबके साथ विनयका, यथासाध्य उनके सुख-हित-सम्पादनका बर्ताव करना। सबका सम्मान करना,पर कभी स्वयं कभी मान न चाहना,न कभी स्वीकार करना।
७.जगतका स्मरण छोड़कर नित्य-निरन्तर भगवानके स्वरूप,नाम,गुण,लीला आदिका प्रेमके साथ स्मरण करना।
८.प्रतिदिन नियत संख्यामें,जितना सुविधापूर्वक कर सकें षोडस-मंत्र का जप करना/दिनभर रटते रहना। सुविधा हो तो कुछसमयतक इसीका कीर्तन करना।
९.स्वसुख-वाञ्छाका, निज-इन्द्रिय-तृप्तिका, अपने मनके अनुकूल भोग-मोक्षकी इच्छाका सर्वथा परित्याग करके भगवान श्रीकृष्णको ही प्रियतम रूप से भजना तथा प्रत्येक कर्य केवल उन्हींके सुखार्थ करना।
१०.आगे बढ़े हुये साधक "मंञ्जरी" भावसे उपासना कर सकते हैं।"मंञ्जरी" भाव का अर्थ--- अपनेको श्रीराधाजी की किंकरी मानकर आठों पहर श्रीराधामाधवके सुख-सेवा-सम्पादनमें अपनेको खो देना--केवल सेवामय बनादेना।
११.अपने साधन-भजन तथा भगवतकृपासे होनेवाली अनुभूतियों को यथासाध्य गुप्त रखना।
१२.सम्मान-पूजा-प्रतिष्ठाको विषके समान समझकर उनसे सदा बचना।बुरा कार्य न करना, पर अपमान को अमृत समझ उसका आदर करना।
from - Shri radha-madhav-chintan

भगवान् में सच्चे विश्वास का स्वरूप

ईश्वर में सच्ची श्रद्धा ,सच्चा विश्वास तभी हुआ मानना  चाहिए जब उनके मंगल विधान में श्रद्धा हो ; फिर वह विधान देखने में कितना भी भयंकर हो , चाहे जितनी कठोर से कठोर विपतियों से भरा हो , चाहे अत्यंत दुखों ,अभावों, क्लेशों , अपमानो और असफलताओं से परिपूर्ण हो | वह भयंकर से भयंकर प्रतिकूलता में जहाँ दृढ निश्चिय रहता है कि 'भगवान् ने यह जो कुछ मुझे दिया है निश्चिय ही मेरे कल्याण के लिए है ' तभी सच्चे  श्रद्धा विश्वास का पता लगता है | भगवान् में श्रद्धा विश्वास रखने वाला मनुष्य बड़ी-से बड़ी काट- छांट में भी परम प्रसन्न  होता है और जैसे रोगी रोगनाश की भावना से प्रसन्न होकर डॉक्टर को धन्यवाद देता है  वैसे ही  वह विश्वासी  मनुष्य भगवान् का कृतज्ञ होकर उनका नित्य दास बन जाता है | ऊपर से देखने में बड़ी भयानक ऐसी घटनाओं से उसका विश्वास जरा भी हिलता नहीं , बल्कि बढ़ता है | यह सत्य है की ऐसा विश्वास होना हंसी -खेल नहीं है | भगवान् का भजन और भगवत -प्रार्थना करते करते अंत:करणकी मलिनता का नाश होने पर ही इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न होता है | 
from - महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर्

मंगलवार, अक्तूबर 18, 2011

जयति जय श्री वृषभानु दुलारी ||

812
जयति जय श्री वृषभानु दुलारी ||
जयति कीर्तिदा जननी , जाई जिन गुण- खानि राधिका प्यारी |
जय वृषभानु महीप -मुकुट-मनि, जिन घर जन्मी जग- उजियारी ||
कृष्णा    कृष्ण-जीवना,  कृष्णाकर्षिनि कृष्ण-प्रान- आधारी ।
परम प्रेम प्रतिमा, परिपूरन प्रिय-सुख अति सुख माननिहारी ॥
प्रिय-सुख समैं परम चतुरा नित , निज सुख समैं सुभोरी - भारी।
प्रिय-सुख लागि बिसरि सब अग-जग, सहित समूद प्रसंसा - गारी॥
टेक-बिबेक एक  प्रियतम  सॊं,  सब  के  सब  संबंध   निवारी ।
भजत - भजत भजनीय  भई अब, तुम्हरॊ  भजन  करत, कंसारी॥
from - padratnakar

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


 ४८५
(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
नहीं छोड़ते हैं पलभर भी करते रहते मनमानी।
 नटखट निपट निरन्तर मुझसे करते मधुर छेडख़ानी॥
 अपने मनकी मुझे कभी वे तनिक नहीं करने देते।
 कभी रुलाते, कभी हँसाते, कभी नचाकर सुख लेते॥
 हृदय लगाते कभी मोद भर, कभी हटाते कर दुर-दुर।
 सुधा पिलाते मधुर कभी, भर मुरलीमें अपना ही सुर॥
 इसीलिये इस जीवनमें, बस उनका ही सुर है बजता।
 उनके ही रससे रसमय मन सदा सहज उनको भजता॥
 मेरे मनकी रही न कुछ भी, उनके मनकी सब मेरी।
 करें-करायें वे चाहे सो, मिटी सभी हेरा-फ़ेरी॥

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


(राग जंगला-ताल कहरवा)
हटे वह सामनेसे, तब कहीं मैं अन्य कुछ देखूँ।
 सदा रहता बसा मनमें तो कैसे अन्यको लेखूँ ?
 उसीसे बोलनेसे ही मुझे फ़ुरसत नहीं मिलती।
 तो कैसे अन्य चर्चाके लिये फिर जीभ यह हिलती ?
 सुनाता वह मुझे मीठी रसीली बात है हरदम।
 तो कैसे मैं सुनूँ किसकी, छोड़ वह रस मधुर अनुपम ?
 समय मिलता नहीं मुझको टहलसे एक पल उसकी।
 छोडक़र मैं उसे, कैसे करूँ सेवा कभी किसकी ?
 रह गयी मैं नहीं कुछ भी किसीके कामकी हूँ अब।
 समर्पण हो चुका मेरा जो कुछ भी था उसीके सब॥ 
from padratnakar  ४८२

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


हु‌आ समर्पण प्रभु-चरणोंमें जो कुछ था सब-मैं-मेरा।
 अग-जगसे उठ गया सदाको चिर-संचित सारा डेरा॥
 मेरी सारी ममताका अब रहा सिर्फ प्रभुसे सबन्ध।
 प्रीति, प्रतीति, सगा‌ई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध॥
 प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा संसार।
 उनके सिवा, शेष को‌ई भी बचा न जिससे हो व्यवहार॥
 नहीं चाहती जाने को‌ई मेरी इस स्थितिकी कुछ बात।
 मेरे प्राणप्रियतम प्रभुसे भी यह सदा रहे अजात॥
 सुन्दर सुमन सरस सुरभित मृदुसे मैं नित अर्चन करती।
 अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डरसे डरती॥
 मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।
 रहूँ कहीं भी कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त॥
 इस मेरी पूजासे पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।
 बढ़े निरन्तर रुचि अर्चामें, बढ़े नित्य ही परमानन्द॥
 बढ़ती अर्चा ही अर्चाका फल हो एकमात्र पावन।
 नित्य निरखती रहूँ रूप मैं उनका अतिशय मनभावन॥
 वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजाको न कभी।
 देख पायँगे वे यदि, होगा भाव-विपर्यय पूर्ण तभी॥
 रह नहिं पायेगा फिर मेरा यह एकाङङ्गी निर्मल भाव।
 फिर तो नये-नये उपजेंगे ’प्रिय’से सुख पानेके चाव॥ 
PadRatnakar 472

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


बने रहें प्रभु एकमात्र मेरे जीवनके जीवन-धन।
 प्राणों के प्रियतम वे मेरे, प्राणाधार, प्राण-साधन॥
 स्वप्न-जागरणमें प्रमादसे भी न कभी हो भूल विभोर।
 नहीं जाय मेरा मन उनको छोड़ कदापि दूसरी ओर॥
 जैसा, जो कुछ भला-बुरा, सब रहे सदा प्रिय-सेवा-लीन।
 रहे देह भी सदा एक प्रियकी पूजामें ही तल्लीन॥
 पूजाकी बन शुचि सामग्री होते रहें नित्य सब धन्य।
 रहूँ किसी भी स्थितिमें, कैसे भी, पर मानस रहे अनन्य॥
 कुछ भी करें, रहे नित तन-मन-धन सबपर उनका अधिकार।
 रस-चिन्तनमें लगा रहे मन, नित्य करे गुण-गान उदार॥
 घुली-मिली मैं रहूँ नित्य प्रियतमसे, रहूँ दूर या पास।
 बाहर-भीतर मेरे प्रियतम, करें सदा-सर्वत्र निवास॥
 PadhRatnakar 460

चैतन्य चरितावली

अपने आप को तृण से भी नीचा  समझना चाहिए तथा तरु से भी अधिक सहनशील बनना चाहिए | स्वयं तो सदा अमानी ही बने रहना चाहिए , किन्तु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिए | अपने को एसा बना लेने पर ही श्रीकृष्णकीर्तन के अधिकारी बन सकते हैं | क्योंकि श्रीकृष्णकीर्तन प्राणियों के लिए कीर्तनीय  वस्तु है 
- चैतन्य चरितावली - पेज -१२५

सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

भगवत प्राप्ति के लिए तीव्र विरह कि आवश्यकता

भगवत्प्राप्तिकी उत्कट इच्छा - इसी इच्छा कि जैसे प्यास से मरते हुए मनुष्य को जल कि होती है | जैसे प्यासे को जल का अनन्य  चिंतन होता है और जल मिलने में जितनी देरी होती है , उतनी ही उसकी व्याकुलता बढती है, वैसे ही भगवान् का अनन्य चिंतन होगा और भगवन के लिए परम व्याकुलता होगी | इससे सहज परमात्मा कि प्राप्ति हो जाएगी| भगवन किसी कर्म के फलस्वरूप नहीं प्राप्त होते , वे तो प्रबल और उत्कट इच्छा होने पर ही मिलते हैं |  ऎसी इच्छा होने पर उसकी प्रत्येक क्रिया भजन बन जाती है |भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण  कर देने पर सहज ही प्रत्येक कार्य भगवान् के लिए ही होता है  क्योंकि भगवन उसके परम आश्रय,परम गति , परम प्रियतम हैं | उसकी साड़ी आसक्ति , ममता , प्रीति सब जगहं से सिमट कर  एकमात्र भगवान् के प्रति ही हो जाती है | वह उन्ही का स्मरण करता रहता है | भगवान् जब उसकी व्याकुल इच्छा को देखते हैं , तब सहज ही  आकर्षित होकर उसके सामने  प्रकट हो जाते हैं | और उसे अपने अंक में ले कर अपने हृदय से लगाकर सदा के लिए निहाल कर देते हैं | 
  महत्त्वपूर्ण  प्रश्नोत्तर page - 53-54 

रविवार, अक्तूबर 16, 2011

प्रार्थना--मेरे प्राणों के प्राण !

मेरे प्राणों के प्राण !
                                      भोगों में सुख नहीं है, यह अनुभव बार-बार होता है ; फिर भी मेरा दुष्ट मन उन्हीकी ओर दोड़ता है | बहुत समझाने की कोशिश करता हूँ , परन्तु नहीं मानता | तुम्हारे स्वरुप चिंतन में लगाना चाहता हूँ , कभी कभी कुछ लगता सा दीखता भी है , परन्तु असल में लगता नहीं| मैं तो जतन करके हार गया मेरे स्वामी ! अब तुम अपनी कृपा शक्ति से इसे खीच लो | मुझे एसा बना दो कि मई सब प्रकार से तुम्हारा ही हो जाऊँ| धन, ऐश्वर्य, मान जो कोई भी तुम्हारी और लगने में बाधक हों उन्हें बलात मुझसे छीन लो | मुझे चाहे रह का भिखारी बना दो , चाहे सबके द्वारा तिरिस्कृत करा दो , परन्तु अपनी पवित्र स्मृति मुझे दे दो | मई बस तुम्हारा स्मरण करता रहूँ | मेरे सुख दुःख , हानि-लाभ , सब कुछ तुम्हारी स्मृति में समा जाय| वे चाहे जैसे आयें - जाएँ, मै सदा तुम्हारे प्रेम में डूबा रहूँ|
 
प्रार्थना page no 22 

मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

Radha ke Vachan shri Krishan ke prati

तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं।
अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं॥
मेरी त्रुटि, मेरे दोषोंको तुमने देखा नहीं कभी।
दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी॥
तब भी कहते-"दे न सका मैं तुमको कुछ भी, हे प्यारी !
तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी"॥
क्या मैं कहूँ प्राणप्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर।
मेरी हर करनीमें ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर !॥