आप अपने को जिन सब मानस शत्रुओं से घिरा देखते हैं , वे सब शत्रु तुरंत भाग जायेंगे , यदि आप श्रीभगवान् के चरणकमलों का आश्रय ले लेंगे| असल में हमारा ममत्व, जो लोकिक सम्बन्धियों में हो रहा है , वही हमे सता रहा है | यदि हम प्रयत्न करके अपने इस सम्बन्ध को सबसे तोड़ कर एकमात्र प्रभु में जोड़ सकें और सबके साथ प्रभु के सम्बन्ध से ही सम्बन्ध रखें तो फिर हमें कोई नहीं सता सकता एवं करने में किसी के साथ व्यावहारिक सम्बन्ध तोड़ने की आवश्यकता नहीं होती | भगवन के सम्बन्ध से हम ही सभी के साथ यथायोग्य व्यवहार करें; पर मन से ममत्व रहे केवल प्रभु चरणों में ही | ममता नहीं छूटती तो मत छोडो , उसे इधर -उधर बिखेर कर जो दुःख पा रहे हो , कभी इधर खिंचते हो कभी उधर , फिर तनिक से स्वार्थ का धक्का लगते ही ममता के कच्चे धागे टूट जाते हैं - एस नित्य की आशांति से अपने आप को छुड़ा लो | यह मान लो की एकमात्र भगवच्चरणारविन्द ही मेरे हैं , उनके अतिरिक्त कुछ मेरा नहीं है | इस प्रकार अपने मन को भगवान् के साथ मजबूत रस्सी से बांध दो | एक बार यहाँ बंधे की फिर कभी छूटने के नहीं | फिर तो भगवान् हमारे वश में ही हो जायेंगे और बाध्य होंगे हमको अपने हृदय में स्थान देने के लिए | from - महत्त्वपूर्णप्रश्नोत्तर page 111
- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप , स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो , जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण , उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं – विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है , उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क