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।। सत्संग-सुधा ।।





1. 'नित्य हँसमुख रहो, मुखको कभी मलिन न करो, यह निश्चय कर लो कि शोकने तुम्हारे लिए जगतमें जन्म ही नहीं लिया हैं ! आनंदस्वरूप में सिवा हँसनेके चिन्ताको स्थान ही कहा हैं !'


2.शान्ति तो तुम्हारे अन्दर हैं! कामनारुपी डाकिनीका आवेश उतरा कि शान्तिके दर्शन हुए ! वैराग्य के महामंत्र से कामनाको भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूर्ति !


3. जहाँ सम्पत्ति है, वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्तिके भेदसे ही सुखका भी भेद है ! दैवी सम्पत्तिवालोंको परमात्म-सुख है, आसुरीवालोंको आसुरी -सुख और नरकके कीड़ोको नरक-सुख !


4. किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो ! याद रखो, परमात्मके यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है !

5. परमात्मापर विश्वास रखकर अपनी जीवन-डोरी उसके चरणोंमें सदाके लिए बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणोंकी दासी बन जाएगी !



6. बीते हुएकी चिन्ता मत करो, जो अब करना है, उसे विचारो और विचारो यही कि बाकीका सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काममें आवे !


7. धन्य वही है, जिसके जीवनका एक-एक क्षण अपने प्रियतम परमात्माकी अनुकूलतामें बीतता है, चाहे वह अनुकूलता संयोगमें हो या वियोगमें, स्वर्गमें हो या नरकमें, मानमें हो या अपमानमें, मुक्तिमें हो या बन्धनमें !


8. सदा अपने हृदयको टटोलते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, वैर, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा, मान और मदरुपी शत्रु घर न कर लें! इनमेंसे जिस किसीको भी देखो, तुरंत मारकर भगा दो ! पर देखना बड़ी बारीक नजरसे सचेत होकर, वे चुपके-से अन्दर आकर छिप जाते हैं और मौका पाकर अपना विकराल रूप प्रकट करते हैं!


9. किसीके भी उपरके आचरणोंको देखकर उसे पापी मत मनो! हो सकता है कि उसपर मिथ्या ही दोषारोपण किया जाता हो और वह उसको अपने को निर्दोष सिद्ध करनेकी परिस्थितिमें न हो! अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी परिस्थितिमें पड़कर अनिच्छासे कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परंतु उसका अन्तः करण तुमसे अधिक पवित्र हो!

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