माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार
( नित्यलीलालीन श्रीभाईजीके पुराने सत्संगसे चयन किये हुए )
मानव-जीवन भगवान् का बननेके लिये प्राप्त हुआ है! हम वास्तवमें भगवान् के हैं, पर हमने अपनेको काम-क्रोध आदिका गुलाम बना रखा है! यही मुर्खता है ! जो भगवान् का बना, उसका जीवन सार्थक; जो जगतका बना, उसका जीवन सार्थक नहीं, निरर्थक!
किसी भी साधनसे हो, किसी भी प्रकारसे हो करना है एक ही काम- भगवान् के चरणोंमें अनुराग! भगवान् के चरणोंमें उत्तरोत्तर अनुराग बढ़ता रहे, इसीमें जीवनकी सार्थकता है ! अतएव भगवान् के प्रति प्रेमकी लालसा जगानी चाहिये! इसके लिये प्रेमस्वरूप भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये और जहाँतक बने, प्रेम प्राप्त करनेके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिये!
सच्चे मनसे, श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान् से माँगनेपर कोई भी सकंट रह नहीं सकता! प्रार्थनाके समय मनमें यह भाव होना चाहिये कि 'भगवान् मेरा यह सकंट दूर कर दें' और प्रार्थनामें आर्तभाव होना चाहिये तथा यह विश्ववास होना चाहिये कि 'इस संकटको भगवान् दूर कर ही देंगे'! जो भगवान् से भगवान् का प्रेम ही चाहते हैं, वे तो सर्वोतम हैं; पर जो पापमें रत हैं, पापसे पैसा बाटोरते हैं, वे यदि भगवान् से कुछ माँगे तो यह बुरा नहीं है! जगतसे, पापसे माँगनेकी अपेक्षा भगवान् से माँगना कहीं श्रेयस्कर है !
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