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अन्याश्रयका सर्वथा त्याग 'निर्भरता' है और निर्भरता आती है विश्वाससे! यदपि विश्वास भगवान् की कृपासे ही होता है, फिर भी जीवसे भगवान् इतनी अपेक्षा अवश्य रखते हैं कि 'वह मुझे अपना मान ले' 'भगवान् ही मेरे है' -- जहाँ यह विश्वास हुआ कि निर्भरता स्वतः आ जाती है! 


साधकके सामने दो चीजें आती हैं प्रधान-रूपसे --प्रलोभन और भय! कहीं उसकी पूजा होने लगती है, सम्मान होने लगता है, खानेको अच्छा मिलता है, उसके मतका आदर होता है-- आदि-आदि प्रलोभन आते हैं और साधक उनमें रम जाता है और कहीं शरीरके आराम-त्याग्का भय, भोगोंके विनाशका भय, लोक-निन्दाका भय, अपमानका भय आदि आते हैं और साधक विचलित होकर साधनका त्याग कर देता है! जो साधक उपर्युक्त प्रलोभनों एवं भयोंकी परवाह न करके अपनी साधनामें दत्तचित्त रहता है, वह लक्ष्यतक पहुँच जाता है! 


' दैन्य' का अर्थ यह नहीं है कि साधक अपनेको इतना पतित मान ले कि उसके मनमें यह बात आ जाय कि वह भगवान् का कैसे हो सकता है! इसके विपरीत उसके मनमें यह भाव आना चाहिये कि में अपनी अयोग्यताके कारण और किसीका हो नहीं सकता, पर भगवान् तो पतितपावन हैं; अतएव वे मेरे हैं, में उनका हूँ! 


खाली घरमें घुसनेका भगवान् का स्वाभाव है! जबतक अपने अन्तः करनमें हम कुछ छिपाकर रखते हैं, तबतक भगवान् आते हैं  और झाँककर लौट जाते हैं! इसलिये अपने हृदयको सर्वथा खाली कर दें-- दीन-हीन हो जाँय -- किसी भी साधन-गुनका अभिमान अपनेमें न रखें!  

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