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प्रेमी भक्त उद्धव





चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार ( संत श्री तुकाराम जयंती)

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श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन  श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके साथ यहीं इसी चबूतरेपर खेलते हुए कब देखूँगा? मेरे जीवन को धिक्कार हैं! मैं उनके बिना भी जीवित हूँ! सच कहता हु उद्धव! यदि उनके आने की आशा न होती, वे मेरे मरनेका समाचार सुनकर दुखी होंगे, यह बात मेरे मन में न होती तो अबतक मैं मर गया होता! सुनता हूँ, गर्गने बतलाया था; और कंस आदिको मारते समय मैंने भी अपनी आँखोंसे उनका बल-पौरुष देखा था कि वे भगवान् हैं! यह सत्य होगा और सत्य हैं! तथापि वे मेरे पुत्र हैं न! चाहे जो हो जाय मुझे तो उन दिनोंकि याद बनी ही रहेगी, जिन दिनों वे नन्हें-से बच्चे थे, मैं उन्हें अपनी गोदमें लेकर खेलता था, वे धूलभरे शारीरसे आकर मेरे कपड़े मैले कर देते थे! मेरे तो वे पुत्र हैं! मैं और कुछ नहीं जनता! 

इतना कहते -कहते नन्द वात्सल्यस्नेहके समुद्रमें डूब गये! नेत्रोंसे आँसुओंकि धारा बह चली! उनकी बुद्धि श्रीकृष्णकी लीलामें प्रवेश कर गयी और वे कुछ बोल न सके, चुप हो गये! यशोदा वहीँ बैठकर नंदबाबाकी सभी बातें सुन रही थीं! उनकी आँखोंसे आँसू और स्तनोंसे दूध बहा जा रहा था! नंदबाबाको प्रेम्मुग्ध देखकर वे उनके पास चली आयीं और संकोच छोड़कर उद्धवसे पूछने लगीं -- 'उद्धव! तुम तो मेरे लल्लाके पास रहते हो, उसके सखा हो, वह सुखसे तो है न? सोकर उठा नहीं की दहीके लिये, मक्खनके लिये मेरे पास दौड़ आया! वहाँ उतने सबेरे उसे कौन खानेको देता होगा? क्या मेरा मोहन दोपहरको ही खाता है? वह दुबला तो नहीं हो गया है? क्या वहाँके पचड़ोंमें  पड़कर मुझे भूल तो नहीं गया ?      


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