चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार
प्रेमी भक्त उद्धव: गत ब्लॉग से आगे........
परन्तु जब उन्होंने स्वीकार कर लिया तब तो उनपर हमारा हक़ हो गया, हमारा दावा हो गया! चाहिये तो यह था की वे हमारी इच्छाके विपरीत एक क्षणके लिए भी हमसे अलग नहीं होते! परन्तु हम यह नहीं चाहतीं! हृदयसे भी चाहनेपर भी उनपर कोई दबाव नहीं डालतीं, उनसे कहतीं नहीं परन्तु हम इसी प्रकार कितने दिनोंतक घुल-घुलकर मरती रहेंगी? हम बहुत दिनोंतक शान्तिसे प्रतीक्षा भी करती रहतीं यदी ये दिन शीघ्रतासे बीतते होते! एक-एक दिन पहाड़ से भारी होते जा रहे हैं! समुद्र -से अपार होते जा रहे हैं! हम क्या करें, ये दिन कैसे बितावें? एक पलक युग हो गया, आँखोंसे आँसुओंकी धारा रूकती ही नहीं, सब सुना-ही-सुना दीखता है! हमारा यह सूनापन क्या कभी बीतेगा ही नहीं?
'उद्धव! हमें अपने वे दिन स्मरण हैं, जब हमारे प्रियतम, हमारे श्रीकृष्ण गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाया करते थे! एक-एक पल हम विकल होकर बितातीं और ह्रदय हहरता रहता की कहीं उनके कमल-से कोमल चरणोंमें काँटे-कुश न गड जायँ! उनके लाल-लाल तलुओंमें पीड़ा न पहुँच जाय! उद्धव! हमारा हृदय जानता है, परमात्मा इस बातका साक्षी है कि जब हम उनके चरणकमलोंको अपने कठोर हृदयपर रखती थीं, तब हमें बड़ा डर लगता था कि कहीं चोट न पहुँच जाय! वे जब गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाने लगते तब हम नंदबाबाके दरवाजेपर पहुँच जातीं, रस्तेमें जाकर खड़ी हो जातीं और जबतक वे आँखोंसे ओझल न हो जाते तबतक एकटक उन्हें देखती रहतीं! काम करनेके लिये घर लौटतीं तो काम-काजमें मन नहीं लगता और करते समय भी ऐसा मालुम होता कि मानो वे हमारे सामने ही खड़े हैं! हम धान कुटती होतीं तो वे आकर मुसल पकड़ लेते! हम दही मथती होतीं तो वे मथानी पकड़कर रोक देते, हम झाड़ू लगाती होतीं तो वे आकर सामने खड़े हो जाते!
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