प्रेमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग से आगे ....
भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे तुम्हें सर्वात्मभावकी प्राप्ति हो गयी है! तुम्हें हर जगह श्रीकृष्ण-ही श्रीकृष्ण दीखते हैं! तुम्हारे पास भेजकर श्रीकृष्णने मुझपर बड़ा ही अनुग्रह किया है! मैं तुम्हारे दर्शनसे धन्य हो गया! कल्याणी गोपियो! उन्होंने तुम्हारे लिए जो सन्देश कहा है, मैं वही सुनाता हूँ! वह सुनकर तुम्हें बड़ा ही आनंद होगा! उनका यही एकांत सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ!'
'श्रीकृष्णने कहा है-- मेरी प्रिय गोपियों! मैं कभी तुमलोगोंसे अलग नहीं रह सकता! जैसे पृथ्वी, जल, वायु ये आकाशसे अलग नहीं हो सकते वैसे ही तुम हमसे अलग नहीं हो सकती! तुम्हारा मन, तुम्हारा प्राण, तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इन्द्रियाँ, तुम्हारे गुण और जो कुछ तुम हो, सब मुझमें है, अपने-आपका ही पालन करता हूँ और अपने -आप ही अपने-आपका संहार करता हूँ! मैं अपनी ही मायासे, अपनी ही शक्तिसे स्वयं ही इन रूपोंमें बन जाता हूँ! आत्मा ज्ञानस्वरुप है! वह मायासे, रहित और गुणोंसे परे है! स्वप्न, सुषुप्ति, जाग्रत इन तीनों अवस्थाओंसे परे और इनका साक्षी हैं! वियोग तो तब है, जब इस मिथ्या संसारकी और दृष्टी है! उसकी ओरसे इन्द्रियोंको, मनोवृत्तियों खींचकर आत्मामें लगाओ! उन्हें अंतर्मुख करो, सारे सिद्धांतोंसाधनों का यही उदेश्य हैं! वेद, योग, सांख्य, त्याग, तपस्या, दम और सत्य इनका यही लक्ष्य है! मैं बाह्य दृष्टीसे तुमलोगोंसे दूर अवश्य हूँ परन्तु केवल आँखोंसे ही दूर हूँ न! आँखकी दुरी दुरी नहीं है! दुरी तो मनकी होती है! वहाँ रहनेकी अपेक्षा मेरे यहाँ रहनेसे तुम्हारा मन मुझमें अधिक लगेगा! मेरा विशेष चिंतन होगा! ऐसा होता आया है और ऐसा ही होता है! सम्पूर्ण वृतियोंको छोड़कर अपने मनको केवल मुझमें लगा दो! मेरा स्मरण करते रहो! शीघ्र ही तुम मुझे प्राप्त कर लोगी! तुम्हें पता हैं न? जिस दिन मैं रास कर रहा था, कई गोपियाँ शरीरसे मेरे पास नहीं आ सकीं; उन्होंने सच्चे ह्रदयसे प्रेमसे मेरा स्मरण किया और शरीरसे पहुँचनेवाली गोपियोंके पहले ही वे मेरे पास पहुँच आयीं!
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