सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.....


(५)


सभी धर्मोका लक्ष्य प्रेमधर्म है! सभी नीतियोंका उदेश्य प्रेमनीतिपर पहुँचना है! प्रेम धर्मोंसे परे है, नीतियोंसे परे है, परन्तु सब धर्म, सब नीतियाँ प्रेमके अन्तर्भूत हैं! वह धर्म, धर्म नहीं जिसमें प्रेम न हो! वह निति, निति नहीं जिसमें प्रेम न हो! प्रेम व्यापक है और धर्म तथा निति व्याप्य! इनके बिना वह रह सकता है परन्तु उसके बिना ये  नहीं रह सकते! सम्पूर्ण नीतियोंका ज्ञान हो परन्तु प्रेमनितीका ज्ञान न हो तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं! प्रेमनिती भगवान् की निति है, उनके सब अपने हैं, सबके साथ उनका प्रेम है और जो उनके आश्रित हैं, उनके साथ तो विशेष प्रेम है! आश्रितवत्सलता भगवान् की निति है और यह प्रेमसे भरी हुई है! भगवान् के भक्त इस बातको जानते हैं और सर्वदा उसीके अनुकूल व्यवहार करते हैं!  


यह बात पहले ही कही जा चुकी है की उद्धव ब्रहस्पति-नीतिके पुरे विद्वान् थे! यदुवंशी मतभेदके अवसरोंपर उनसे सलाह लिया करते थे परन्तु उस समय उद्धव भगवान् की निति अथवा प्रेमनितीके विद्वान नहीं थे! अब वे गोपियोंके पास जाकर प्रेमधर्मकी सिक्षा प्राप्त कर आये थे! भगवान् की नीतिका उन्हें पता था! समय -समयपर श्रीकृष्ण अपने मनकी बात स्वयं न कहकर उन्हींसे कहलाया करते थे!


उन दिनों युधिष्ठिरके यहाँ राजसूय-यज्ञ होनेवाला था! द्वारकामें भगवान् को वहाँका निमन्त्रण मिल चूका था! दूसरी ओर जरासंधके अत्याचारसे त्रस्त और उसके कैदी हजारों राजाओंकी प्रार्थना यह थी की भगवान् जरासंधको मारकर  हमारी रक्षा करें! देवर्षि नारदने आकर भगवान् से कहा था की अब आप शीघ्र ही शिशुपालको मारें! उसके कारण संसारमें बड़ा उत्पात मचा हुआ है! इस अवसरपर अधिकांश यदुवंशियों और बलरामकी यह सम्मति थी की पहले जरासंध और शिशुपालको मारा जाय! यही हमलोगोंका प्रधान कर्तव्य है! जरासंध और शिशुपालके अत्याचारोंसे सब जले हुए थे! वे कहते थे की 'युधिष्ठिरका यज्ञ तो हमारे बिना भी पूरा हो सकता है! वहाँ जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णके मनमें पांडवोंका आकर्षण अधिक था! वे चाहते थे की युधिष्ठिर, अर्जुन और द्रौपदीका मन न टूटे, मेरी प्रसन्नताके लिये ही वे यज्ञ कर रहे हैं, मैं न रहूँगा तो वे यज्ञ न कर सकेंगे! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने स्वंय ही यह बात नहीं कही, सबके सामने उद्धवको अपना सम्मति प्रकट करनेके लिये प्रेरित किया! 


[३०]

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,