प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.....
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सभी धर्मोका लक्ष्य प्रेमधर्म है! सभी नीतियोंका उदेश्य प्रेमनीतिपर पहुँचना है! प्रेम धर्मोंसे परे है, नीतियोंसे परे है, परन्तु सब धर्म, सब नीतियाँ प्रेमके अन्तर्भूत हैं! वह धर्म, धर्म नहीं जिसमें प्रेम न हो! वह निति, निति नहीं जिसमें प्रेम न हो! प्रेम व्यापक है और धर्म तथा निति व्याप्य! इनके बिना वह रह सकता है परन्तु उसके बिना ये नहीं रह सकते! सम्पूर्ण नीतियोंका ज्ञान हो परन्तु प्रेमनितीका ज्ञान न हो तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं! प्रेमनिती भगवान् की निति है, उनके सब अपने हैं, सबके साथ उनका प्रेम है और जो उनके आश्रित हैं, उनके साथ तो विशेष प्रेम है! आश्रितवत्सलता भगवान् की निति है और यह प्रेमसे भरी हुई है! भगवान् के भक्त इस बातको जानते हैं और सर्वदा उसीके अनुकूल व्यवहार करते हैं!
यह बात पहले ही कही जा चुकी है की उद्धव ब्रहस्पति-नीतिके पुरे विद्वान् थे! यदुवंशी मतभेदके अवसरोंपर उनसे सलाह लिया करते थे परन्तु उस समय उद्धव भगवान् की निति अथवा प्रेमनितीके विद्वान नहीं थे! अब वे गोपियोंके पास जाकर प्रेमधर्मकी सिक्षा प्राप्त कर आये थे! भगवान् की नीतिका उन्हें पता था! समय -समयपर श्रीकृष्ण अपने मनकी बात स्वयं न कहकर उन्हींसे कहलाया करते थे!
उन दिनों युधिष्ठिरके यहाँ राजसूय-यज्ञ होनेवाला था! द्वारकामें भगवान् को वहाँका निमन्त्रण मिल चूका था! दूसरी ओर जरासंधके अत्याचारसे त्रस्त और उसके कैदी हजारों राजाओंकी प्रार्थना यह थी की भगवान् जरासंधको मारकर हमारी रक्षा करें! देवर्षि नारदने आकर भगवान् से कहा था की अब आप शीघ्र ही शिशुपालको मारें! उसके कारण संसारमें बड़ा उत्पात मचा हुआ है! इस अवसरपर अधिकांश यदुवंशियों और बलरामकी यह सम्मति थी की पहले जरासंध और शिशुपालको मारा जाय! यही हमलोगोंका प्रधान कर्तव्य है! जरासंध और शिशुपालके अत्याचारोंसे सब जले हुए थे! वे कहते थे की 'युधिष्ठिरका यज्ञ तो हमारे बिना भी पूरा हो सकता है! वहाँ जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णके मनमें पांडवोंका आकर्षण अधिक था! वे चाहते थे की युधिष्ठिर, अर्जुन और द्रौपदीका मन न टूटे, मेरी प्रसन्नताके लिये ही वे यज्ञ कर रहे हैं, मैं न रहूँगा तो वे यज्ञ न कर सकेंगे! परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने स्वंय ही यह बात नहीं कही, सबके सामने उद्धवको अपना सम्मति प्रकट करनेके लिये प्रेरित किया!
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