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प्रेमी भक्त उद्धव: ........गत ब्लॉग से आगे .... 


वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार


परन्तु प्रश्न इतना ही नहीं है! शिशुपालकी बात तो पीछे देखि जायगी। जरासंधके कैदी राजाओंकी प्रार्थना उपेक्षा करनेयोग्य नहीं है। दीनोंकी, शरणागतोंकी रक्षा करना सभीका एकांत कर्तव्य है और भगवान् श्रीकृष्णने तो इसका व्रत ले रखा है! परन्तु यह काम हमारी ओरसे नहीं होना चाहिये। इसके लिए सामूहिक युद्ध छेड़नेका अभी अवसर भी नहीं है! यह काम पाण्डवोंसे मिलकर उनकी सहायता और शक्ति प्राप्त करके उपायके द्वारा ही करना चाहिये। यह काम हस्तिनापुर जानेपर श्रीकृष्ण कर लेंगे। यज्ञके पूर्व राजाओंको छुड़ा लिया जाय, इससे हमारी और युद्धिष्ठिरकी शक्ति बढ़ जायगी, उसके पश्चात शिशुपालको यज्ञमें निमंत्रित किया जाय और उसका रुख देखकर, राजाओंकी सम्मति देखकर शिशुपालके दोषोंके प्रकट हो जानेपर जैसा मौका आवे, वैसा किया जाय। अनन्तः मेरी सम्मति तो यही है की श्रीकृष्ण और उनके साथ हम सब अपने पाण्डवोंके यज्ञमें चलें, उसके बाद सब व्यवस्था हो जायगी।


सबने एक स्वरमें उद्धवके विचारोंका समर्थन किया। बलरामने भी कहा - 'उद्धवके विचार ही ठीक हैं। ये भगवान् की सम्मति जानते हैं, उनकी इच्छाके अनुसार ही कहते हैं और भगवान् अपने भक्तोंको छोड़कर अभक्तोंकी और जा नहीं सकते। इसलिये यही बात ठीक हैं।' 


सब लोगोंने युद्धिष्ठिरके यज्ञकी यात्रा की। भगवान् ने भीम के द्वारा जरासंध को मरवा डाला और हजारों राजा कैदखानेसे मुक्त होकर युद्धिष्ठिरकी सहायता करनेके लिए यज्ञमें आये । सौ अपराधोंतक क्षमा करने के पश्चात भगवान् श्रीकृष्णने सबके सामने ही चक्रद्वारा शिशुपालका उद्धार किया और धर्मराजका यज्ञ सकुशल संपन्न हुआ। उद्धवकी नितिमत्ताका यश चरों और फैल गया। महाभारतके कई स्थानोंमें उद्धवकी नितिकी  प्रसंशा है। धृतराष्ट्रने विदुरकी प्रसंशा करते हुए कहा है की जैसे यदुवंशियोंमें नीतिके सर्वश्रेष्ट और यशस्वी विद्वान्  उद्धव हैं, वैसे ही कुरुकुलमें तुम हो। जिसे  भगवान् की सन्निधि, उनकी कृपा और उनका प्रेम प्राप्त है, उसके नितिमान होनेमें क्या संदेह है? भगवान् की आज्ञाका पालन करते हुए उद्धव द्वारकामें निवास करने लगे।  

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