अब आगे.....
परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिकागृह को जगमग कर रहे थे ! जब वासुदेवजी को यह निश्चय को गया कि वे तो परम पुरुष परमात्मा हो हैं,तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा ! अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे -
वासुदेवजी ने कहा - मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं ! आपका स्वरुप है केवल अनुभव और केवल आनंद ! आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं ! आप ही सर्गके आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं ! फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं ! जब महत्तत्त्व इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते ! ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं ! ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है ! यद्यपि आप उनमें रहते हैं फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आप का ग्रहण नहीं होता ! इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अंतर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं ! गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता ! इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर ! फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे ? (इसलिए प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) ! जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है ! क्योंकि विचार करने पर वे देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते ! विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य मानने वाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है?
श्रीप्रेम-सुधा-सागर
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