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भगवान् श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनंत है ! वे केवल लीला के लिए ही मनुशय्के बालक बने हुए हैं ! यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है ! आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं) दिशाएं, पहाड़, द्वीप,और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, विद्युत, अग्नि,चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मंडल, जल, तेज, पवन, वियत (प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंच्तंमात्राएँ और तीनो गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े ! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हे से खुले हुए मुख में देखा ! वे बड़ी शंका में पड़ गयीं ! वे सोचने लगीं कि 'यह कोई स्वप्न है या भगवान् कि माया? संभव है मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो' ! जिनका स्वरुप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ! यह मैं हूँ और यह मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराज की समस्त संपत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैं - जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान् ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं - मैं उन्हीं की शरण में हूँ' ! तब सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके ह्रदय में संचार कर दिया ! यशोदाजी को तुरंत वह घटना भूल गयी ! उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया ! सारे वेद, उपनिषद, सांख्य, योग, और भक्तजन जिनके माहात्मय गीत गाते-गाते अघाते नहीं - उन्हीं भगवान् को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थीं !
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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