जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, जून 30, 2012

अक्रूरजी की ब्रजयात्रा






अब आगे..........

              जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं,  अक्रूरजी ने गोष्ट में  उनके चरण चिन्हों  के दर्शन किये l  उन चरण चिन्हों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के ह्रदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गए l  प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा l  नेत्रों में आंसू भर आये और टप-टप  टपकने लगे  l  वे रथ से कूदकर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे - 'अहो ! यह हमारे प्रभु के चरणों कि रज है' l यहाँ तक अक्रूरजी के चित्त कि जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ है l  इसलिए जीव मात्र का यही परम कर्त्तव्य कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान् की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिन्ह, लीला, स्थान तथा गुणों दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें l
               ब्रज में पहुँच कर अक्रूरजी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा l उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे l उन्होंने अभी किशोर  अवस्था में प्रवेश ही किया था l उनके चरणों में ध्वजा, वज्र , अंकुश और कमल के चिन्ह थे l उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कला से भरी थी l उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेग से अधीर हो कर रथ से कूद पड़े और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम के चरणों के पास साष्टांग लोट गए l भगवान् के दर्शन से उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसू से भर गए l शरणागत वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उनके मन का भाव जान गए l उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से चक्रांकित हाथों के द्वारा उन्हें खींच कर उठाया और ह्रदय से लगा लिया  l घर ले जाकर भगवान् ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया l श्रद्धा से उन्हें पवित्र और अनेक गुणों से युक्त अन्न का भोजन कराया l इस प्रकार सत्कार हो चुकने पर नन्द राय ने उनके पास आकर पूछा - 'अक्रूरजी ! आपलोग निर्दयी कंस के जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं  l फिर भी आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं' ? जब इस प्रकार नंदबाबा ने मधुर वाणी से अक्रूरजी से कुशल-मंगल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजी के शरीर में रास्ता चलने की जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)          

शुक्रवार, जून 29, 2012

अक्रूरजी की ब्रजयात्रा






अब आगे...........

              जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिए तुरंत रथ से कूद पडूँगा l उनके चरण पकड़ लूँगा l बड़े-बड़े योगी-यति आत्म साक्षात्कार के लिए मन-ही-मन अपने ह्रदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊंगा और लोट जाऊंगा उन पर l मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलों में गिर जाऊंगा , तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे  ?  इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान् के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व - इन्द्रपद प्राप्त कर लिया l अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव  से खड़ा हो जाऊंगा l वे मुस्कराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे l उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायेंगे और मैं नि:शंक हो कर सदा के लिए परमानन्द में मग्न हो जाऊंगा l मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यंत हित चाहता हूँ l उनका आलिंगन प्राप्त होते ही - मेरे कर्ममय बंधन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ , टूट जायेंगे  l तब मेरा जीवन सफल हो जायेगा l भगवान् श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया - उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है l न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय l न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद है और न तो शत्रु l उनकी उपेक्षा का पात्र कोई नहीं है l भगवान् श्रीकृष्ण भी , जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं - वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं l मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊंगा और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायेंगे l वहां सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे l और मैं उनको आनन्द से निहारता रहूँगा l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

गुरुवार, जून 28, 2012

अक्रूरजी की ब्रज यात्रा

महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरा पुरी में बिता कर प्रात:काल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिए l वे इस प्रकार सोचने लगे l 'मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा' l ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते - उन भगवान के दर्शन मेरे लिया अत्यंत दुर्लभ है, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिए वेदों का कीर्तन l परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही l अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गए l आज मेरा जन्म सफल हो गया l क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-पतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं l ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की अपसना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिए भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं - भगवान् के वे ही चरणकमल मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा l भगवान् विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं l वे सौंदर्य की मूर्तिमान निधि हैं l आज मुझे उन्ही का दर्शन होगा l अवश्य होगा l आज मुझे सहज ही आँखों का फल मिल जायेगा l भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत के दृष्टा मात्र हैं l वे अपनी योगमाया से ही अपने-आप में भ्रूविलास मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि के सहित अपने स्वरुपभूत जीवों की रचना कर लेते हैं l जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं l अपनी ही बनायीं मर्यादा का पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिए l वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज ब्रज में निवास कर रहे हैं और वहीँ से अपने यश का विस्तार कर रहे हैं l उनका यश कितना पवित्र है l वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं l सबके परम गुरु हैं l और उनका रूप-सौंदर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेनेवाला है l जो नेत्रवाले हैं, उनके लिए वह आनन्द और रस की चरम सीमा है l श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

बुधवार, जून 27, 2012

युगलगीत






अब आगे..........
              अरी सखी ! उनके गले में तुलसी की मधुर माला की गन्ध उन्हें बहुत प्यारी लगती है l इसीसे तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं l जब वे बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर मोहित कर देते हैं l हम गोपियाँ भी तो अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहती हैं l
               नंदरानी यशोदाजी ! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो l  तभी तो तुम्हे ऐसे पुत्र मिले हैं l वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते  हैं l  उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्र्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती है l  अरी सखी ! इसीलिए तो  श्यामसुंदर ने गोवर्धन धारण किया था l  अब वे सब गौओं को लौटकर आते ही होंगे; देखो, सांयकाल हो चला  है l वे दिन भर जंगलों में घूमते-घूमते थक गए हैं l फिर भी अपनी इस शोभा से हमारी आँखों को कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं l देखो, हे यशोदा की कोख से प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हमारी आशा-अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए ही हमारे पास चले आ रहे हैं l
                सखी ! देखो कैसा सौन्दर्य है l गले में वनमाला लहरा रही है l  सोने के कुण्डल की कान्ति से वे अपने कोमल कपोलों को अलंकृत कर रहे हैं l देखो, देखो  सखी ! ब्रज विभूषण श्रीकृष्ण गजराज के समान मदभरी चाल से इस संध्या वेला में हमारी ओर आ रहे हैं l उदित होने वाले चन्द्रमा की भांति ये हमारे प्यारे श्यामसुंदर समीप चले आ रहे हैं l बड़ भागिनी गोपियाँ का मन श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था l  वे श्रीकृष्ण मय हो गयी थीं l  उन्हीं की लीलाओं का गान करके उसी में रम जातीं l  इस प्रकार उनके दिन बीत जाते l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                  

मंगलवार, जून 26, 2012

युगलगीत







अब आगे..........
              अरी सखी ! जितनी भी वस्तुएं संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं - ये हमारे मनमोहन l हमारे नटनागर श्यामसुंदर भौरों के स्वर में स्वर मिलकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं l  उस समय सखी ! उस संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथसे निकल जाता है l वे विवश होकर प्यारे श्यामसुंदर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं - मानो कोई विहंगम वृति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है l
                हमारे श्यामसुंदर जब बाँसुरी बजाने लगते हैं -बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिंगन करने लगते हैं - उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है l अरी सखी ! वह तो प्रसन्न हो कर बड़े ही प्रेम से उनके ऊपर अपने जीवन ही निछावर कर देता है - नन्ही-नन्ही फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो l  कभी-कभी बादलों की ओट में छिपकर देव्तालोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं l
                 सतीशिरोमणि यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुंवर ग्वालबाल के साथ खेल खेलने में बड़े निपुण हैं l देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसीसे सीखा नहीं l  अपने ही अनेकों प्रकार की राग-रागनियाँ उन्होंने निकल लीं l वंशी की परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकने पर भी उनके हाथ से निकलकर वंशी ध्वनि  में तल्लीन हो ही जाता है l उनकी वह वंशी ध्वनि  और वह विलास भरी चितवन हमारे ह्रदय मैं प्रेम के मिलन की आकांक्षा का आवेग बढ़ा देती है l हम उस समौय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं की हिल-डोल तक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)    
   

सोमवार, जून 25, 2012

युगलगीत






             भगवान् श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिए प्रतिदिन वन  में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था l उनका मन श्रीकृष्ण का चिंतन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं l
              गोपियाँ आपस में कहतीं - अरी सखी ! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्य रेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ मोती-सी चमकने लगती हैं l उनके वक्ष:स्थल  पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिररूप से बैठ गयी हो l जब वह अपनी बाँसुरी को अपने अधरों से लगाते है तथा अपनी सुकुमार अँगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, तो उस तान को सुनकर अत्यंत ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं l उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त को चुरा लेती है  l
                हे सखी ! जब वे नन्द के लाडले लाल अपने सिर पर मोरपंख मुकुट बाँध लेते हैं, घुंघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते है, और नए नए पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो l  उस समय प्यारी सखियों ! नदियों की गति भी रूक जाती है l वे भी हमारे-ही-जैसी मन्दभागिनी हैं l वे भी प्रेम के कारण काँपने लगती हैं l दो-चार बार अपनी तरंग रूप  भुजाओं को काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परन्तु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेश से स्तंभित हो जाती हैं l
                 जैसे देवता लोग अनंत और अचिन्त्य ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान् नारायण की शक्तियों का गान कटे हैं, वैसे ही ग्वालबाल भी श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं l जब श्रीकृष्ण वृन्दावन में विहार करते रहते हैं, उस समय वन के वृक्ष और लताएँ फूल और फलों से लद जाती हैं, उनके भार से डालियाँ झुककर धरती छूने लगती है, मानो प्रणाम कर रही हों l  उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधुधाराएँ उंडेलने लगती हैं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)    

रविवार, जून 24, 2012

महारास






अब आगे.........
              भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं l उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजी के सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण था l उनके अवतार का उद्धेश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश हो l भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वास्तु की कामना नहीं थी l सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ ) कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं l परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता l जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिए, शरीर से करना तो दूर रहा l यदि कोई मूर्खता वश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है l  भगवान् शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिए तो वह जलकर भस्म हो जायेगा l इसलिए इस प्रकार के जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए l  इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि उनका जो आचरण उनके उद्धेश्य के अनुकूल हो उसी को जीवन में उतारे l वे सामर्थ्यवान पुरुर्ष अहंकारहीन होते हैं, वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं l उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभ सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है l जिनके चरणकमलों के रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला उनमें कर्मबंधन की कल्पना ही कैसे हो सकती है l भगवान् जीवों पर कृपा करने के लिए ही अपने को मनुष्यरूप  में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएं करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जाएँ l ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी l  ब्राह्म मुहूर्त आया l
                जो धीर प्रुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलासका श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान् के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने ह्रदय के रोग - कामविकार से छुटकारा पा जाता है l उसका काम भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

शनिवार, जून 23, 2012

महारास






अब आगे...........
              गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मीजी से भी बढ़कर है l  भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रखा था, उस समय गोपियों के बड़ी अपूर्व शोभा थी l वे रास मण्डल में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं l उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे l  जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछाईं के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने ह्रदय से लगा लेते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते, तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हसने लगते l भगवान् श्रीकृष्ण की यह रास क्रीडा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं और समस्त तारों और ग्रहों के साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गए l यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं - उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी की भी आवश्कता नहीं है - फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेल में उनके साथ इस प्रकार विहार किया l भगवान् के करकमल और नखस्पर्श गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ l उन्होंने प्रेमभरी चितवन से, जो सुधा से भी मीठी मुसकान से उज्जवल हो रही थी, भगवान् श्रीकृष्ण का सम्मान किया और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं l इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ब्रज युवतियों और भोरों की भीड़ से घिरे हुए यमुनातट के उपवन में गए l वह बड़ा ही रमणीय था l  शरद की वह रात्रि  जिसके रूप में अनेक रात्रियाँ पुन्जीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थीं l  भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी गोपियों के साथ यमुना के पुलिन , यमुना जी और उनके उपवन में विहार किया l यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि भगवान् सत्यसंकल्प हैं l  यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मय लीला है l  और उन्होंने इस लीला में कामभाव को , उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रियाओं को सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आप में कैद कर रखा था l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०) 

शुक्रवार, जून 22, 2012

महारास




       
             गोपियाँ भगवान् की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरह्जन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं l भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह  डाले कड़ी थीं l उन स्त्री रत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिन पर भगवान् ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की l सम्पूर्ण योगों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गए और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया l इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था l सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं l इस प्रकार सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों से शोभायमान भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ l उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़  लग गयी l  सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे l स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ  अपने आप बज उठीं l स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी l रास मण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुंदर के साथ नृत्य करने लगीं l असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिए यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोर की हो रही थी l ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई स्वर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो l नृत्य के समय गोपियाँ कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्करातीं, तो कभी भोंहे मटकातीं l नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो l उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं l उनके राग-रागनियों से पूर्ण गान से वह सारा जगत अब भी गूँज रहा है l एक राग को एक सखी ने ध्रुपद में गाया l भगवान् ने उसका भी बहुत सम्मान किया l एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी l तब उसने बगल में ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुंदर के कंधे को अपनी बाँह से कसकर पकड़ लिया l एक गोपी नृत्य कर रही थी , नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटा से उसके कपोल और भी चमक रहे थे l उसने अपने कपोलों को भगवान् श्रीकृष्ण के कपोलों से सटा दिया l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)              

गुरुवार, जून 21, 2012

भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना





अब आगे.............
           
               बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वाही सर्शक्तिमान भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गए l तीनों लोकों में - तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभासभर है l  वे उसके एकमात्र आश्रय हैं l गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुस्कान,विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भोहों से उनका सम्मान किया l वे उनके संस्पर्श का आनंद लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं - कितना सुकुमार है, कितना मधुर है l
               गोपियों ने कहा - नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से  ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से प्रेम करते हैं l परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते l  प्यारे ! इन तीनों में तुम्हे कौन-सा अच्छा लगता है ?
                भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है l लेन-देन मात्र है l न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म l उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है l सुंदरियों जो प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं - जैसे स्वभाव से ही करुणाशील, सज्जन और माता-पिता - उनका ह्रदय सौहार्द से, हितेषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य और पूर्ण धर्म भी है l कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं हैl  ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं l एक तो वे जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं l दुसरे वे जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं l तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपने हित करनेवाले परोपकारी गुरुतत्व लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं l गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसे व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए l मैं तो ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चितवृति और भी मुझ में लगे, निरन्तर लगी रहे l इसलिए तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो l  तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ l तुम अपने सौम्य स्वभाव से , प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो  l  परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

बुधवार, जून 20, 2012

भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना






                  भगवान् की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में, प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं l ठीक उसी समय उनके बीचों-बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गए l  उनका मुखकमल मन्द-मन्द  मुस्कान से खिला हुआ था l उनका यह रूप क्या था , कामदेव के मन को भी मथनेवाला था l अपने श्यामसुंदर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनंद से खिल उठे l मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग से नवीन चेतना - नूतन स्फूर्ति आ गयी हो l एक गोपी ने उनके चन्दनचर्चित भुजदंड को अपने कंधे पर रख लिया l  एक गोपी, जिसके ह्रदय में भगवान् के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमल को दबाने लगी l एक गोपी अपन निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल मकरन्द-रस पान करने लगी l परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान् के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरंतर पान करते  रहने पर भी तृप्त नहीं होती थीं l एक और गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान् को अपने ह्रदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं l यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़ गयी l ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होने पर और भी शोभायमान होता है l
                    इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने उन ब्रज सुन्दरियों  को साथ लेकर यमुनाजी के पुलिन में प्रवेश किया  l शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली  ही छटा दिखला रही थी l  भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के ह्रदय में इतने आनंद और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके ह्रदय कि सारी आधि-व्याधि मिट गयी l जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियां उसका वर्णन करते-करते अंत में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं - वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                

मंगलवार, जून 19, 2012

गोपिकागीत





अब आगे.........
              हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण  कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं l तुम्हारे वे युगल चरण गौएँ चराते समय कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है l हमें बड़ा दुःख होता है l हम देखती हैं, की तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं l तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलने की आकांक्षा - प्रेम उत्पन्न करते हो l एकमात्र तुम्ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो l तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की सरमस्त अभिलाषाओं को पूर्ण  करने वाले हैं l आपत्ति के समय एकमात्र उन्ही का चिन्तन करना उचित है, जिससे साड़ी आपत्तियां कट जाती हैं l प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण  युग के समान हो जाता है l हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आई हैं l तुम प्रेम भरी चिंतवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष;स्थल, जिस पर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं l तब से अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है l
                प्यारे ! तुम्हारी  यह अभिव्यक्ति ब्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करनेवाली और विश्व का पूर्ण  मंगल करने के लिए है l तुम्हारे चरण कमल भी सुकुमार हैं l   उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो l क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी सम्भावनामात्र से ही चक्कर आ रहा है l हम अचेत होती जा रही हैं l  श्रीकृष्ण ! श्यामसुंदर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं और तुम्हारी ही रहेंगी l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

सोमवार, जून 18, 2012

गोपिकागीत




        

               गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं - प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों में भी ब्रज की महिमा बढ़ गयी है l परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने  तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं l वन-वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं l हमारे प्रेमपूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं l हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है ? तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अंतर्यामी हो l  सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो l
              जो लोग जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं l हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो l हमसे रूठो मत, प्रेम करो l  हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं l हम अबलाओं को अपना  वह परम सुन्दर सांवला-सांवला मुखकमल दिखलाओ l कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है l बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं l  तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं l प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है l वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है l  प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चित्तवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थीं l  उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है,  उसके बाद तुम मिले l  तुमने एकांत में ठिठोलियाँ की,  प्रेम की बातें कहीं l  हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                      

रविवार, जून 17, 2012

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा






अब आगे........
              एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण l यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया l  अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुंदरी गोपी हाथों से मुँह ढँककर भय की नक़ल करने लगी l इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से  फिर श्रीकृष्ण का पता पूछने लगी l इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान् के चरणचिन्ह  देखे l  वे कहने लगीं - 'अवश्य ही ये चरणचिन्ह उदार शिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुंदर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज अंकुश और जौ आदि के चिन्ह स्पष्ट ही दीख रहे हैं l तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी ब्रजयुवती के भी चरण चिन्ह दीख पड़े l उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं l अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की यह 'आराधिका' होगी l इसीलिए इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्रन्प्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है l इस गोपी के उभरे हुए चरण चिन्ह तो हमारे ह्रदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं l भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं l वे अपने-आप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं l जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है ? उन्होंने तो एक खेल रचा था l
                 इधर भगवान् श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी के साथ थे, उसने समझा कि 'मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ l इसीलिए तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण केवल मेरा ही मान करते हैं l  मुझे ही आदर दे रहे हैं l और श्रीकृष्ण से कहने लगीं - अब तुम मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो' श्यामसुंदर ने कहा - 'अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो'  l  यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी l 'हा नाथ ! हा रमण ! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ l  शीघ्र ही मुझे अपने सानिध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो' l ऐसा कहकर वह अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी l इसके बाद वे जब तक चांदनी थी तब तक वे ढूंढती रही, फिर वे उधर से लौट आयीं l श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पर - रमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                        

शनिवार, जून 16, 2012

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा





                भगवान् सहसा अंतर्धान हो गए l  उन्हें न देखकर ब्रजयुवतियों का ह्रदय विरह की ज्वाला से जलने लगा l वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं l अपने श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं l उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उत आयीं l वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयी l और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ' - इस प्रकार कहने लगीं l भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गए थे l  वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं l  वे वहीँ थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पत्तियों से - पेड़ -पोधों से उनका पता पूछने लगीं l
                 नन्दनन्दन श्यामसुंदर अपनी प्रम्भारी मुस्कान और चित्तवन से हमारा मन चुराकर चले गए हैं l क्या तुमलोगों ने उन्हें देखा है l प्यारी मालती ! मल्लिके !जाती और जूही ! तुमलोगों ने कदाचित हमारे माधव को देखा होगा l क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हे आनंदित करते हुए इधर से गए हैं ? श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है l  हम बेहोश हो रही हैं l तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो l देखो, देखो, यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गंध आ रही है l जो उनकी परम प्रयेसी के अंग-संग से लगे हुए कुछ-कुंकुम से अनुरंजित रहती है l हमारे श्यामसुंदर इधर से  विचरते हुए अवश्य गए होंगे l
                  इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्ण को ढूंढते-ढूंढते कातर हो रही थीं l अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान् की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं l कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ  चलने लगीं और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे l जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गए हुए पशुओं को बुलाने का खेल खेलने लगी l एक गोपी , दूसरी गोपियों से कहने लगती - 'मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण हूँ l  तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो' l



श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

शुक्रवार, जून 15, 2012

रासलीला का आरम्भ










अब आगे...........
             
               प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और  वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं l  इस से प्राय: तुम उन्ही के पास रहते हो l यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकमलों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्ही चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ l जिस दिन से तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिए भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं l अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है l उन्ही के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आई हैं l तुम्हारी मधुर मुसुकान और चारू चितवन ने हमारे ह्रदय में प्रेम की  - मिलन आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उस से जल रहा है l तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो l  हमें अपनी सेवा का अवसर दो l हमसे यह बात छुपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओं कि रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम ब्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिए ही प्रकट हुए हो l और यह भी स्पष्ट है कि दीं-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है l  प्रियतम ! हम भी बड़ी दुखिनी हैं l
               भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं l जब उन्होंने गोपियों की व्यथा और व्याकुलता भरी वाणी सुनी, तब उनका ह्रदय दया से भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं - अपने-आप में ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वास्तु की अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा आरम्भ की l भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भंगी और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दिन; फिर भी वे अपने स्वरुप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे l भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियो के  साथ यमुनाजी के के पावन पुलिन पर, आनन्दप्रद क्रीडा की l  हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, चितवन से देखना और मुस्काते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे l जब भगवान् ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शांत करने के लिए तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिए वहीँ - उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गए l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)            

गुरुवार, जून 14, 2012

रासलीला का आरम्भ






अब आगे...........
              भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - महाभाग्यवती गोपियों ! तुम्हारा स्वागत है l  ब्रज में तो सब कुशल-मंगल है न ? कहो इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी l गोपियों रात का समय है , यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता  है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर- उधर घूमते रहते हैं l  अत: तुम सब तुरंत ब्रज में लौट जाओ l तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा l पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंग हुआ है , मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो l परन्तु अब तो तुमलोगों ने यह सब कुछ देख लिया l अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र ब्रज में लौट जाओ l यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुमलोग यहाँ आई हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है l गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से , रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है l वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहने से नहीं होती l इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ l
               भगवान् श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं l उनकी आशा टूट गयी l उन्होंने अपने मुँह नीचे की ओर लटका लिए, वे पैर के नखों से धरती कुरेदने लगी l उनका ह्रदय दुःख से इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप  खड़ी रह गयीं l जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की यह निष्ठुरता से भरी बात सुनी , तब उन्हें बड़ा दुःख लगा l  आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आंसुओं के मारे रूँध गयीं l
               गोपियों ने कहा  - प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घाट-घाट व्यापी हो l हमारे ह्रदय की बात जानते हो l  हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं l  तुम पर हमारा कोई वश नहीं है l  जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो l हमारा त्याग मत करो l तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो , आत्मा हो और परम प्रियतम हो l  हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग  भी हटने के लिए तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं l  फिर हम ब्रज कैसे जाएँ ?  हे प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)            

बुधवार, जून 13, 2012

रासलीला का आरम्भ











अब आगे..........
              उस समय कुछ गोपियाँ घरों के भीतर थीं l उन्हें बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला l तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिए और बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्ण के सौंदर्य, माधुर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगीं l ध्यान में उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए l उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेम से, बड़े आवेग से उनका आलिंगन किया l उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शांति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गए l उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव से किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे l इसलिए उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्म के परिणाम बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया l (भगवान् कि लीला में सम्मलित होने  के योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया ) l  इस शरीर से भोगे जाने वाले कर्मबंधन तो ध्यान के समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे l
                भगवान् श्रीकृष्ण ने यह जो अपने को तथा अपनी लीला को प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे l इसलिए भगवान् से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिए l वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो - काम का हो, क्रोध का हो या भय का हो, स्नेह नातेदारी या सौहार्द का हो l चाहे जिस भाव से भगवान् में नित्य-निरंतर अपनी वृतियां जोड़ दी जाएँ, वे भगवान् से ही जुड़ती हैं l योगेश्वरों के भी ईश्वर अजन्मा भगवान् के लिए भी यह कोई आश्चर्य कि बात है ?  अरे ! उनके संकल्पमात्र से भोहों के इशारे से सारे जगत का परम कल्याण हो सकता है l भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रज गोपियों को देखकर अपनी विनोदभरी वक्चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा - क्यों न हो - भूत, भविष्य, और वर्तमानकाल के जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं l
               

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                    

मंगलवार, जून 12, 2012

रासलीला का आरम्भ






               शरद ऋतु थी l  उसके कारण बेला, चमेली, आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँक रहे थे l  भगवान् ने गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब-की-सब पुन्जीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लासित हो रहीं थीं l भगवान् ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया l गोपियाँ तो चाहती ही थीं l अब भगवान् ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बना कर रसमयी रासक्रीडा करने का संकल्प किया l भगवान् के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशा के मुखमण्डल  पर अपने शीतल किरणरुपी करकमलों से लालिमा की रोली-केशर मल दी l इस प्रकार चन्द्रदेव ने उदय होकर न केवल पूर्वदिशा का, प्रत्युत संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का सन्ताप दूर कर दिया l पूर्णिमा की रात्रि थी और चन्द्रदेव नूतन केशर के समान लाल-लाल हो रहे थे l उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजी के समान मालूम हो रहा था l  भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य उज्जवल रस के उद्दीपन की पूरी सामग्री उन्हें और उस वन को देख कर अपनी बाँसुरी पर ब्रज सुंदरियों के मन को हरण करने वाली कामबीज 'क्लीं' की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी l भगवान् का वह वंशीवादन भगवान् के प्रेम को , उनके मिलन की लालसा को अत्यंत उकसानेवाला - बढ़ानेवाला था l यों तो श्याम-सुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था l अब तो उनके मन की सारी वस्तुएं - भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि की वृतियां भी छीन लीं l  वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी l गोपियाँ भी एक-दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर जहाँ वे थे, वहां के लिए चल पड़ीं l
               वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थी, वे अत्यंत उत्सुकतावश, दूध दुहना छोड़कर चल पड़ीं l जो भोजन परस रही थीं, जो छोटे-छोटे बच्चों को दूध पिला रही थीं,और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्णप्यारे के पास चल पड़ीं l पिता और पतियों ने, भाई और जाति-बंधुओं ने उन्हें रोका, उनकी मंगलमयी प्रेम यात्रा में विघ्न डाला l  परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं, कि रोकने पर भी न रुकी , न रुक सकीं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०) 

सोमवार, जून 11, 2012

श्रीकृष्ण का अभिषेक





अब आगे.........
              भगवन ! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध बहुत ही तीव्र , मेरे वश के बाहर है l जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे ब्रजमंडल को नष्ट कर देना चाह l  परन्तु प्रभो ! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया l मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमण्ड कि जड़ उखड गयी l  आप मेरे स्वामी हैं, मेरे गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं l  मैं आपकी शरण में हूँ l
               श्रीभगवान ने कहा - इन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन-संपत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे l इसलिए तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है l  यह इसलिए कि अब तुम मुझे नित्य-निरंतर स्मरण रख सको l इन्द्र ! तुम्हारा मंगल हो l अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो l अब कभी घमण्ड न करना l अपने अधिकार के अनुसार उचित रीती से मर्यादा का पालन करना l भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी संतानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको संबोधित करके कहा  -
                 कामधेनु ने कहा  -  सच्चिदानन्दस्वरुप  श्रीकृष्ण ! आप महायोगी  - योगेश्वर हैं l  आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं l आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्तकर हम सनाथ हो गयीं l प्रभो ! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं l अत:आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिए हमारे इन्द्र बन जाइये l  हम गौएँ ब्रह्मा जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी l भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देवमाताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा  के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें 'गोविन्द' नाम से सम्बोधित किया l मुख्य-मुख्य देवता भगवान् की स्तुति करके उनपर नंदनवन के दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे l तीनो लोकों में परमानन्द की बाढ़ आ गयी l भगवान् श्रीकृष्ण का अभिषेक होनेपर जो जीव स्वाभाव से ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गए , उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी l इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविन्द का अभिषेक किया  l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)              

रविवार, जून 10, 2012

श्रीकृष्ण का अभिषेक






            जब भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्द्धन को धारण करके मूसलाधार वर्षा से ब्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देने के लिए) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए) आये l इसलिए एकान्त स्थान में भगवान् के पास जाकर अपने सूर्य के सामान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया l
             इन्द्र ने कहा - भगवन ! आपका स्वरुप परम शांत, ज्ञानमय,रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय है l जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादि से है ही नहीं, फिर उन देहादि की प्राप्ति के कारण तथा उन्ही से होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आप में हो ही कैसे सकते हैं l आप अपने भक्तों के लालसा पूर्ण करने के लिए स्वछन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएं करते हैं l प्रभो ! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है l परमेश्वर ! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े l  परमात्मन ! आपका यह अवतार इसलिए हुआ है कि जो असुर सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिए बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय, और जो आपके चरणों के सेवक हैं - आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय  हो - उनकी रक्षा हो l भगवन ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ l  आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं l आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वंतंत्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है l आपका यह शरीर भी विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है l  आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं l मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ  l



श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                

शनिवार, जून 09, 2012

गोवर्द्धन धारण






अब आगे.......
              भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों कि मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं l  वे समझ गए कि यह सारी करतूत इन्द्र की है l  उन्होंने ने ही क्रोध वश ऐसा किया है l हमने इन्द्र का यज्ञ-भंग कर दिया है, इसी से ब्रज का नाश करने के लिए बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं l ये मूर्खता वश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूंगा l देवता लोग तो सत्वप्रधान होते हैं l  अत: यह उचित ही है कि इन सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भंग कर दूँ l  इस से अंत में उन्हें शांति ही मिलेगी l अत: इस सारे ब्रज को मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा l संतों कि रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है l
               इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया l इसके बाद भगवान् ने गोपों से कहा -  तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढे में आकर आराम से बैठ जाओ l जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सब को आश्वासन दिया - तब सब-के-सब अपने सुभीते के अनुसार गोवर्द्धन के गड्ढे में आ घुसे l भगवान् श्रीकृष्ण ने सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगातार उस पर्वत को उठाये रखा l  वे एक डग भी इधर-उधर नहीं हुए l श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा l इस के बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया l भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपों से कहा  - देखो, अब तुमलोग निडर हो जाओ,अब आंधी-पानी  बंद हो गया तथ नदियों का पानी भी उतर गया l सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया l यह देखकर कोई उन्हें ह्रदय से लगाने और कोई चूमने लगा l सबने उनका सत्कार किया l उस समय आकाश में स्थित, देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान् की स्तुति करते हुए उन पर फूलों की वर्षा करने लगे l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                    

शुक्रवार, जून 08, 2012

गोवर्द्धन धारण





अब आगे..........
              जब इन्द्र को पता लगा  कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नंदबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए l इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं हो त्रिलोकी का ईश्वर हूँ l  उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सान्वर्तक नामक गण को ब्रज पर चढ़ाई करने कि आज्ञा दी और कहा - 'ओह , इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है l  भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला l अब तुम लोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो l मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के ब्रज का नाश करने के लिए महापराकर्मी मरूदगणों के साथ आता हूँ' l
               इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बंधन खोल दिए l  अब वे बड़े वेग से नंदबाबा के ब्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे ब्रज को पीड़ित करने लगे l चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगी, बादल आपस में टकराकर कडकने लगे और प्रचण्ड आंधी कि प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे l इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार बरसने लगे, तब ब्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा - इसका पता चलना कठिन हो गया l सभी ब्रजवासी ग्वाल और ग्वालिने भी ठण्ड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं , तब वे सब-के-सब भगवान् श्रीकृष्ण कि शरण में आये l और बोले - 'प्यारे श्रीकृष्ण ! तुब बड़े भाग्यवान हो अब तो कृष्ण ! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी l प्रभो ! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो l भक्तवत्सल  ! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो' l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)     

गुरुवार, जून 07, 2012

गोवर्द्धन धारण




            भगवान् श्रीकृष्ण सबके अंतर्यामी और सर्वज्ञ हैं l  फिर भी विनयवनत होकर उन्होंने नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों से पूछा - 'पिताजी ! आपलोगों  के सामने यह कौन -सा उत्सव आ पंहुचा है ? आप मुझे यह अवश्य बतलाये l नंदबाबा ने कहा - बेटा ! भगवान् इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघों के स्वामी हैं l वे समस्त प्राणियों को तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं l उन्ही इन्द्र की हम यज्ञों के द्वारा  पूजा किया करते हैं l यह धर्म हमारी कुलपरम्परा से चला आया है l 
             श्रीभगवान ने कहा - पिताजी ! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से मर जाता है l उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है l जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है ? अपने कर्म के अनुसार ही 'यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है' - ऐसा व्यवहार करता है l ब्राह्मण वेदों के अध्ययन -अध्यापन से , क्षत्रिय पृथ्वी पालन से, वैश्य वार्ता वृति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविका का निर्वाह करें l उसी से अन्न और अन्नसे सब जीवों की जीविका चलती है l  इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है? वह भला क्या कर सकता है?  
              पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है और हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं l  हम तो सदा के वनवासी हैं l  इसलिए हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज का यजन करने के तैयारी करें l इन्द्र-यज्ञ के लिए जो सामग्रियां इकट्ठी की गयी हैं, उन्ही से इस यज्ञ का अनुष्ठान होने दें l अनेकों प्रकार के पकवान - खीर, हलवा, पुआ, पूरी आदि से लेकर मूंग के दाल तक बनाये जाएँ l तथा गिरिराज गोवर्द्धन की प्रदक्षिणा की जाय l कालात्मा भगवान् की इच्छा थी कि इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दें l नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली l भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था , वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया l भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गए, तथा 'मैं गिरिराज हूँ' इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे l भगवान् अपने उस स्वरुप को दूसरे सब के साथ स्वयं भी प्रणाम करने लगे और कहने लगे - 'देखो, कैसा आश्चर्य है  l  गिरिराज ने साक्षात् प्रकट होकर हम पर कृपा की है l  

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)              

बुधवार, जून 06, 2012

यज्ञपत्नियों पर कृपा





अब आगे..........
           
               भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - देवियों ! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु, - कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे l उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा l  अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो l देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं l इसलिए तुम जाओ अपना मन मुझमें लगा दो l  तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जाएगी l
               जब भगवान् ने इस प्रकार कहा, तब ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं l  उन ब्राह्मणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं  की l उनके साथ मिल कर अपना यज्ञ पूरा किया l इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन  किया l इधर जब ब्राह्मणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ l वो सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है l वे कहने लगे - हाय ! हम भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख हैं l धिक्कार है ! धिक्कार है !! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए l  भगवान् की माया बड़े बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है  l परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं l देखो तो सही - यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगदगुरु भगवान् श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है  ! उसी से इन्होने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फांसी भी काट डाली, जो मृत्य के साथ भी नहीं  कटती l अहो, भगवान् की कितनी कृपा है ! भक्तवत्सल प्रभु ने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलाई l भगवान् स्वयं  पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएं होती हैं, उनको पूर्ण करने वाले हैं l वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् विष्णु स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी ; परन्तु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके l वे आदि पुरुष पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हमारे इस अपराध को क्षमा करें l क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी माया से मोहित हो रही है और हम उनके प्रभाव को न जानने वाले अज्ञानी हैं l



श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)                      

मंगलवार, जून 05, 2012

यज्ञपत्नियों पर कृपा





अब आगे........
              अब की बार ग्वालबाल पत्निशाला में गए l उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही - 'आप विप्रपतिनियों को हम नमस्कार करते हैं l आप कृपा करके हमारी बात सुने l  भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है l इस समय उन्हें और उनके साथियों को  भूख लगी है आप उनके लिए कुछ भोजन दे दें l श्रीकृष्ण के आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं l  उन्होंने बर्तनों में अत्यंत स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, और चोष्य - चारों प्रकार की भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बंधू, पति-पुत्रों के रोकते रहने से भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाने के लिए घर से निकल पड़ीं - ठीक वैसे ही जैसे नदियाँ समुद्र के लिए l ब्राह्मणपत्नियों ने जाकर देखा कि अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं l गले में वनमाला लटक रही है l मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है l एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमल का फूल नचा रहे हैं l मुखकमल मंद-मंद मुसकानकी रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है l अपने मनको उन्ही के प्रेम के रंग में रंग डाला l अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने ह्रदय जलन शांत की l
                भगवान् सब के ह्रदय की बात जानते हैं, सब की बुद्धियों के साक्षी हैं l  भगवान् ने कहा - 'महाभाग्यवती देवियों ! तुम्हारा स्वागत है l आओ बैठो, कहो हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुमलोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आई हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालों के योग्य ही है l प्राण, बुद्धि. मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र, और धन आदि संसार की सभी वस्तुएं जिस के लिए और जिसकी  सन्निधि से प्रिय लगती हैं - उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है l परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं l  अब अपनी यज्ञशाला में लौट जाओ l  तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं l  वे तुम्हे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे' l
                 ब्राह्मणपत्नियों ने कहा - आपको ऐसे बात नहीं कहनी चाहिए l  श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान् को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता l  आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये l स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बंधू और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे फिर दूसरों की तो बात ही क्या है l हमें और किसी का सहारा नहीं है l  इसलिए अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)    

सोमवार, जून 04, 2012

यज्ञपत्नियों पर कृपा






             ग्वालबालों के कहा - हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर  ! नयनाभिराम बलराम ! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है l  उन्ही दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है l अत: तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो l
              जब ग्वालबालों ने देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना के, तब उन्होंने मथुरा की अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियों  पर अनुग्रह करने के लिए यह बात कही  - 'मेरे प्यारे मित्रों ! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं l तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ l ग्वालबालों ! मेरे भेजने से वहां जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्री बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा-सा भात  - भोजन की सामग्री मांग लाओ' l जब भगवान् ने ऐसे आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उस ब्राह्मणों की यज्ञशाला में गए और उनसे भगवान् की आज्ञा के अनुसार ही अन्न माँगा - 'पृथ्वी के मूर्तिमान देवता ब्राह्मणों ! आपका कल्याण हो ! आपसे निवेदन है कि हम ब्रज के ग्वाले हैं l भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम कि आज्ञा से हम आपके पास आये हैं l  आप हमारी बात सुने l भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम गौएँ चराते हुए यहाँ से थोड़े ही दूर पर आये हुए हैं l  उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोडा-सा भात दे दें l इस प्रकार भगवान् के अन्न मांगने कि बात सुनकर भी उस ब्राह्मणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया l सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञान  कि दृष्टि से थे बालक ही, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे l जो अपने को शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान् को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया l जब उन ब्राह्मणों  ने 'हाँ' या 'ना'  - कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालों के आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहां के सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम से कह दी l भगवान् श्रीकृष्ण हंसने लगे, उन्होंने ग्वालबालों को समझाया कि 'संसार में असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिए; बार-बार प्रयत्न करते रहने से सफलता मिल ही जाती है l  'मेरे प्यारे ग्वालबालों ! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि  राम और श्याम  यहाँ आये हैं l  तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी l  वे मुझसे  बड़ा प्रेम करती हैं , उनका मन सदा-सर्वदा मुझ में लगा रहता है' l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)  

यज्ञपत्नियों पर कृपा


रविवार, जून 03, 2012

वेणुगीत





अब आगे..........
              जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी  मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं l यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप - शांत हो कर खड़े रह जाते हैं l वास्तव में उनका जीवन धन्य है l  (हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढने लगते है l कितनी विडम्बना है  !)  स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनंदित करनेवाले सौंदर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब उनके चित्र-विचित्र  आलाप सुनकर वे अपने विमानपर ही सुध-बुध खो बैठती हैं - मूर्छित हो जाती हैं l तुम  देवियों की बात क्या कह रही हो,  इन गौओं को नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब अपने दोनों कानों के दोने खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं l अपने नेत्र के द्वार से श्यामसुंदर को ह्रदय में ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं l उनके ह्रदय में भी होता है आनंद के संस्पर्श  और नेत्रों में छलकते होते हैं आनंद के आँसू l
                वृन्दावन के पक्षियों को देखो, उन्हें पक्षी कहना ही भूल है ! सच पूछो तो उनमें से अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं l वे डालियों पर बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी तथा प्यारभरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथ कानो से अन्य सब प्रकार के शब्दों को छोड़कर केवल उन्हीं की मोहनी वाणी और वंशी का त्रिभुवनमोहन  संगीत सुनते रहते हैं l उनका जीवन कितना धन्य है l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)

शनिवार, जून 02, 2012

वेणुगीत





             शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था l भगवान् श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया l जल निर्मल था और वायु मंद-मंद चल रही थी l उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत - सब-के-सब गूंजते रहते थे l श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी l  श्रीकृष्ण की वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगानेवाली थी l उसे सुनकर गोपियों का ह्रदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया l ब्रज की गोपियों ने वंशी ध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाह तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भोहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आई l उनकी भगवान् से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी l वे मन-ही-मन देखने लगीं कि श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं l गले में पांच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है l बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं l इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिन्हों से और भी रमणीय बन गया है l गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं l वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं l
               गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं - अरी सखी ! हमने तो आंखवालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही - इतनी ही सफलता समझी है; वह यही है कि जब श्यामसुंदर श्रीकृष्ण और बलराम गायों को हांककर वन से ब्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेम भरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें l उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों l मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है l यह वेणु पुरुष जाती का होने पर भी पूर्व जन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों कि अपनी संपत्ति - दामोदर के अधरों कि सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिए थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा l यह वृन्दावन वैकुंठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)              

शुक्रवार, जून 01, 2012

वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन








अब आगे..........

              थोड़े जल में रहनेवाले प्राणियों को शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी - जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं l शरद ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गंभीर और शांत हो गया - जैसे मन के नि:संकल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकांड का झमेल छोड़कर शांत हो जाता है l किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्दिर्यों को विषयों की और जाने से रोककर,प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं l  शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता, परन्तु चन्द्रमा रात्रि  के समय लोगों का सारा संताप वैसे ही हर लेते  -  जैसे देहाभिमान से होनेवाले दुःख को ज्ञान और भगवद्विरह से होनेवाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं l
                जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा l फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम l उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती ; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था l जैसे रजा के शुभागमन से डाकू-चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गए l उस समय बड़े शहरों और गावों में नवान्न्प्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे l साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, सन्यासी, राजा और सनातक  - जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे - वहां से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गए l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)