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वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन








अब आगे..........

              थोड़े जल में रहनेवाले प्राणियों को शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी - जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं l शरद ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गंभीर और शांत हो गया - जैसे मन के नि:संकल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकांड का झमेल छोड़कर शांत हो जाता है l किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्दिर्यों को विषयों की और जाने से रोककर,प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं l  शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता, परन्तु चन्द्रमा रात्रि  के समय लोगों का सारा संताप वैसे ही हर लेते  -  जैसे देहाभिमान से होनेवाले दुःख को ज्ञान और भगवद्विरह से होनेवाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं l
                जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा l फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम l उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती ; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था l जैसे रजा के शुभागमन से डाकू-चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गए l उस समय बड़े शहरों और गावों में नवान्न्प्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे l साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, सन्यासी, राजा और सनातक  - जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे - वहां से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गए l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
                   

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