शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था l भगवान् श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया l जल निर्मल था और वायु मंद-मंद चल रही थी l उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत - सब-के-सब गूंजते रहते थे l श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी l श्रीकृष्ण की वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगानेवाली थी l उसे सुनकर गोपियों का ह्रदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया l ब्रज की गोपियों ने वंशी ध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाह तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भोहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आई l उनकी भगवान् से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी l वे मन-ही-मन देखने लगीं कि श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं l गले में पांच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है l बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं l इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिन्हों से और भी रमणीय बन गया है l गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं l वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं l
गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं - अरी सखी ! हमने तो आंखवालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही - इतनी ही सफलता समझी है; वह यही है कि जब श्यामसुंदर श्रीकृष्ण और बलराम गायों को हांककर वन से ब्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेम भरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें l उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों l मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है l यह वेणु पुरुष जाती का होने पर भी पूर्व जन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों कि अपनी संपत्ति - दामोदर के अधरों कि सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिए थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा l यह वृन्दावन वैकुंठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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