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गोवर्द्धन धारण




            भगवान् श्रीकृष्ण सबके अंतर्यामी और सर्वज्ञ हैं l  फिर भी विनयवनत होकर उन्होंने नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों से पूछा - 'पिताजी ! आपलोगों  के सामने यह कौन -सा उत्सव आ पंहुचा है ? आप मुझे यह अवश्य बतलाये l नंदबाबा ने कहा - बेटा ! भगवान् इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघों के स्वामी हैं l वे समस्त प्राणियों को तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं l उन्ही इन्द्र की हम यज्ञों के द्वारा  पूजा किया करते हैं l यह धर्म हमारी कुलपरम्परा से चला आया है l 
             श्रीभगवान ने कहा - पिताजी ! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से मर जाता है l उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है l जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है ? अपने कर्म के अनुसार ही 'यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है' - ऐसा व्यवहार करता है l ब्राह्मण वेदों के अध्ययन -अध्यापन से , क्षत्रिय पृथ्वी पालन से, वैश्य वार्ता वृति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविका का निर्वाह करें l उसी से अन्न और अन्नसे सब जीवों की जीविका चलती है l  इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है? वह भला क्या कर सकता है?  
              पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है और हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं l  हम तो सदा के वनवासी हैं l  इसलिए हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज का यजन करने के तैयारी करें l इन्द्र-यज्ञ के लिए जो सामग्रियां इकट्ठी की गयी हैं, उन्ही से इस यज्ञ का अनुष्ठान होने दें l अनेकों प्रकार के पकवान - खीर, हलवा, पुआ, पूरी आदि से लेकर मूंग के दाल तक बनाये जाएँ l तथा गिरिराज गोवर्द्धन की प्रदक्षिणा की जाय l कालात्मा भगवान् की इच्छा थी कि इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दें l नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली l भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था , वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया l भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गए, तथा 'मैं गिरिराज हूँ' इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे l भगवान् अपने उस स्वरुप को दूसरे सब के साथ स्वयं भी प्रणाम करने लगे और कहने लगे - 'देखो, कैसा आश्चर्य है  l  गिरिराज ने साक्षात् प्रकट होकर हम पर कृपा की है l  

श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)              

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