जब भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्द्धन को धारण करके मूसलाधार वर्षा से ब्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देने के लिए) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए) आये l इसलिए एकान्त स्थान में भगवान् के पास जाकर अपने सूर्य के सामान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया l
इन्द्र ने कहा - भगवन ! आपका स्वरुप परम शांत, ज्ञानमय,रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय है l जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादि से है ही नहीं, फिर उन देहादि की प्राप्ति के कारण तथा उन्ही से होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आप में हो ही कैसे सकते हैं l आप अपने भक्तों के लालसा पूर्ण करने के लिए स्वछन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएं करते हैं l प्रभो ! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है l परमेश्वर ! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े l परमात्मन ! आपका यह अवतार इसलिए हुआ है कि जो असुर सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिए बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय, और जो आपके चरणों के सेवक हैं - आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो - उनकी रक्षा हो l भगवन ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ l आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं l आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वंतंत्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है l आपका यह शरीर भी विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है l आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं l मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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