अब आगे.........
भगवन ! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध बहुत ही तीव्र , मेरे वश के बाहर है l जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे ब्रजमंडल को नष्ट कर देना चाह l परन्तु प्रभो ! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया l मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमण्ड कि जड़ उखड गयी l आप मेरे स्वामी हैं, मेरे गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं l मैं आपकी शरण में हूँ l
श्रीभगवान ने कहा - इन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन-संपत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे l इसलिए तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है l यह इसलिए कि अब तुम मुझे नित्य-निरंतर स्मरण रख सको l इन्द्र ! तुम्हारा मंगल हो l अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो l अब कभी घमण्ड न करना l अपने अधिकार के अनुसार उचित रीती से मर्यादा का पालन करना l भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी संतानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको संबोधित करके कहा -
कामधेनु ने कहा - सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण ! आप महायोगी - योगेश्वर हैं l आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं l आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्तकर हम सनाथ हो गयीं l प्रभो ! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं l अत:आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिए हमारे इन्द्र बन जाइये l हम गौएँ ब्रह्मा जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी l भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देवमाताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें 'गोविन्द' नाम से सम्बोधित किया l मुख्य-मुख्य देवता भगवान् की स्तुति करके उनपर नंदनवन के दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे l तीनो लोकों में परमानन्द की बाढ़ आ गयी l भगवान् श्रीकृष्ण का अभिषेक होनेपर जो जीव स्वाभाव से ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गए , उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी l इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविन्द का अभिषेक किया l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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