सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

रासलीला का आरम्भ






अब आगे...........
              भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - महाभाग्यवती गोपियों ! तुम्हारा स्वागत है l  ब्रज में तो सब कुशल-मंगल है न ? कहो इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी l गोपियों रात का समय है , यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता  है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर- उधर घूमते रहते हैं l  अत: तुम सब तुरंत ब्रज में लौट जाओ l तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा l पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंग हुआ है , मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो l परन्तु अब तो तुमलोगों ने यह सब कुछ देख लिया l अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र ब्रज में लौट जाओ l यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुमलोग यहाँ आई हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है l गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से , रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है l वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहने से नहीं होती l इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ l
               भगवान् श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं l उनकी आशा टूट गयी l उन्होंने अपने मुँह नीचे की ओर लटका लिए, वे पैर के नखों से धरती कुरेदने लगी l उनका ह्रदय दुःख से इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप  खड़ी रह गयीं l जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की यह निष्ठुरता से भरी बात सुनी , तब उन्हें बड़ा दुःख लगा l  आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आंसुओं के मारे रूँध गयीं l
               गोपियों ने कहा  - प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घाट-घाट व्यापी हो l हमारे ह्रदय की बात जानते हो l  हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं l  तुम पर हमारा कोई वश नहीं है l  जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो l हमारा त्याग मत करो l तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो , आत्मा हो और परम प्रियतम हो l  हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग  भी हटने के लिए तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं l  फिर हम ब्रज कैसे जाएँ ?  हे प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)            

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,