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प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं l इस से प्राय: तुम उन्ही के पास रहते हो l यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकमलों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्ही चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ l जिस दिन से तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिए भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं l अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है l उन्ही के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आई हैं l तुम्हारी मधुर मुसुकान और चारू चितवन ने हमारे ह्रदय में प्रेम की - मिलन आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उस से जल रहा है l तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो l हमें अपनी सेवा का अवसर दो l हमसे यह बात छुपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओं कि रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम ब्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिए ही प्रकट हुए हो l और यह भी स्पष्ट है कि दीं-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है l प्रियतम ! हम भी बड़ी दुखिनी हैं l
भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं l जब उन्होंने गोपियों की व्यथा और व्याकुलता भरी वाणी सुनी, तब उनका ह्रदय दया से भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं - अपने-आप में ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वास्तु की अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा आरम्भ की l भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भंगी और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दिन; फिर भी वे अपने स्वरुप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे l भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियो के साथ यमुनाजी के के पावन पुलिन पर, आनन्दप्रद क्रीडा की l हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, चितवन से देखना और मुस्काते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे l जब भगवान् ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शांत करने के लिए तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिए वहीँ - उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गए l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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