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गोपिकागीत




        

               गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं - प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों में भी ब्रज की महिमा बढ़ गयी है l परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने  तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं l वन-वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं l हमारे प्रेमपूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं l हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है ? तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अंतर्यामी हो l  सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो l
              जो लोग जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं l हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो l हमसे रूठो मत, प्रेम करो l  हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं l हम अबलाओं को अपना  वह परम सुन्दर सांवला-सांवला मुखकमल दिखलाओ l कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है l बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं l  तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं l प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है l वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है l  प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चित्तवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थीं l  उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है,  उसके बाद तुम मिले l  तुमने एकांत में ठिठोलियाँ की,  प्रेम की बातें कहीं l  हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                      

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