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गोपिकागीत





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              हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण  कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं l तुम्हारे वे युगल चरण गौएँ चराते समय कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है l हमें बड़ा दुःख होता है l हम देखती हैं, की तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं l तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलने की आकांक्षा - प्रेम उत्पन्न करते हो l एकमात्र तुम्ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो l तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की सरमस्त अभिलाषाओं को पूर्ण  करने वाले हैं l आपत्ति के समय एकमात्र उन्ही का चिन्तन करना उचित है, जिससे साड़ी आपत्तियां कट जाती हैं l प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण  युग के समान हो जाता है l हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आई हैं l तुम प्रेम भरी चिंतवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष;स्थल, जिस पर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं l तब से अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है l
                प्यारे ! तुम्हारी  यह अभिव्यक्ति ब्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करनेवाली और विश्व का पूर्ण  मंगल करने के लिए है l तुम्हारे चरण कमल भी सुकुमार हैं l   उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो l क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी सम्भावनामात्र से ही चक्कर आ रहा है l हम अचेत होती जा रही हैं l  श्रीकृष्ण ! श्यामसुंदर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं और तुम्हारी ही रहेंगी l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

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