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भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना






                  भगवान् की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में, प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं l ठीक उसी समय उनके बीचों-बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गए l  उनका मुखकमल मन्द-मन्द  मुस्कान से खिला हुआ था l उनका यह रूप क्या था , कामदेव के मन को भी मथनेवाला था l अपने श्यामसुंदर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनंद से खिल उठे l मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग से नवीन चेतना - नूतन स्फूर्ति आ गयी हो l एक गोपी ने उनके चन्दनचर्चित भुजदंड को अपने कंधे पर रख लिया l  एक गोपी, जिसके ह्रदय में भगवान् के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमल को दबाने लगी l एक गोपी अपन निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल मकरन्द-रस पान करने लगी l परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान् के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरंतर पान करते  रहने पर भी तृप्त नहीं होती थीं l एक और गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान् को अपने ह्रदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं l यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़ गयी l ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होने पर और भी शोभायमान होता है l
                    इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने उन ब्रज सुन्दरियों  को साथ लेकर यमुनाजी के पुलिन में प्रवेश किया  l शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली  ही छटा दिखला रही थी l  भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के ह्रदय में इतने आनंद और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके ह्रदय कि सारी आधि-व्याधि मिट गयी l जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियां उसका वर्णन करते-करते अंत में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं - वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)                

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