सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना





अब आगे.............
           
               बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वाही सर्शक्तिमान भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गए l तीनों लोकों में - तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभासभर है l  वे उसके एकमात्र आश्रय हैं l गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुस्कान,विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भोहों से उनका सम्मान किया l वे उनके संस्पर्श का आनंद लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं - कितना सुकुमार है, कितना मधुर है l
               गोपियों ने कहा - नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से  ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से प्रेम करते हैं l परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते l  प्यारे ! इन तीनों में तुम्हे कौन-सा अच्छा लगता है ?
                भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है l लेन-देन मात्र है l न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म l उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है l सुंदरियों जो प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं - जैसे स्वभाव से ही करुणाशील, सज्जन और माता-पिता - उनका ह्रदय सौहार्द से, हितेषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य और पूर्ण धर्म भी है l कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं हैl  ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं l एक तो वे जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं l दुसरे वे जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं l तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपने हित करनेवाले परोपकारी गुरुतत्व लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं l गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसे व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए l मैं तो ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चितवृति और भी मुझ में लगे, निरन्तर लगी रहे l इसलिए तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो l  तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ l तुम अपने सौम्य स्वभाव से , प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो  l  परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)      

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।