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बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वाही सर्शक्तिमान भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गए l तीनों लोकों में - तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभासभर है l वे उसके एकमात्र आश्रय हैं l गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुस्कान,विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भोहों से उनका सम्मान किया l वे उनके संस्पर्श का आनंद लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं - कितना सुकुमार है, कितना मधुर है l
गोपियों ने कहा - नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से प्रेम करते हैं l परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते l प्यारे ! इन तीनों में तुम्हे कौन-सा अच्छा लगता है ?
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है l लेन-देन मात्र है l न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म l उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है l सुंदरियों जो प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं - जैसे स्वभाव से ही करुणाशील, सज्जन और माता-पिता - उनका ह्रदय सौहार्द से, हितेषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य और पूर्ण धर्म भी है l कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं हैl ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं l एक तो वे जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं l दुसरे वे जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं l तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपने हित करनेवाले परोपकारी गुरुतत्व लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं l गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसे व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए l मैं तो ऐसा केवल इसलिए करता हूँ कि उनकी चितवृति और भी मुझ में लगे, निरन्तर लगी रहे l इसलिए तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो l तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ l तुम अपने सौम्य स्वभाव से , प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो l परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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