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भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं l उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजी के सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण था l उनके अवतार का उद्धेश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश हो l भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वास्तु की कामना नहीं थी l सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ ) कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं l परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता l जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिए, शरीर से करना तो दूर रहा l यदि कोई मूर्खता वश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है l भगवान् शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिए तो वह जलकर भस्म हो जायेगा l इसलिए इस प्रकार के जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए l इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि उनका जो आचरण उनके उद्धेश्य के अनुकूल हो उसी को जीवन में उतारे l वे सामर्थ्यवान पुरुर्ष अहंकारहीन होते हैं, वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं l उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभ सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है l जिनके चरणकमलों के रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला उनमें कर्मबंधन की कल्पना ही कैसे हो सकती है l भगवान् जीवों पर कृपा करने के लिए ही अपने को मनुष्यरूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएं करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जाएँ l ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी l ब्राह्म मुहूर्त आया l
जो धीर प्रुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलासका श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान् के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने ह्रदय के रोग - कामविकार से छुटकारा पा जाता है l उसका काम भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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