भगवान् श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिए प्रतिदिन वन में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था l उनका मन श्रीकृष्ण का चिंतन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं l
गोपियाँ आपस में कहतीं - अरी सखी ! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्य रेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ मोती-सी चमकने लगती हैं l उनके वक्ष:स्थल पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिररूप से बैठ गयी हो l जब वह अपनी बाँसुरी को अपने अधरों से लगाते है तथा अपनी सुकुमार अँगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, तो उस तान को सुनकर अत्यंत ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं l उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त को चुरा लेती है l
हे सखी ! जब वे नन्द के लाडले लाल अपने सिर पर मोरपंख मुकुट बाँध लेते हैं, घुंघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते है, और नए नए पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो l उस समय प्यारी सखियों ! नदियों की गति भी रूक जाती है l वे भी हमारे-ही-जैसी मन्दभागिनी हैं l वे भी प्रेम के कारण काँपने लगती हैं l दो-चार बार अपनी तरंग रूप भुजाओं को काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परन्तु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेश से स्तंभित हो जाती हैं l
जैसे देवता लोग अनंत और अचिन्त्य ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान् नारायण की शक्तियों का गान कटे हैं, वैसे ही ग्वालबाल भी श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं l जब श्रीकृष्ण वृन्दावन में विहार करते रहते हैं, उस समय वन के वृक्ष और लताएँ फूल और फलों से लद जाती हैं, उनके भार से डालियाँ झुककर धरती छूने लगती है, मानो प्रणाम कर रही हों l उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधुधाराएँ उंडेलने लगती हैं l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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