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युगलगीत







अब आगे..........
              अरी सखी ! जितनी भी वस्तुएं संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं - ये हमारे मनमोहन l हमारे नटनागर श्यामसुंदर भौरों के स्वर में स्वर मिलकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं l  उस समय सखी ! उस संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथसे निकल जाता है l वे विवश होकर प्यारे श्यामसुंदर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं - मानो कोई विहंगम वृति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है l
                हमारे श्यामसुंदर जब बाँसुरी बजाने लगते हैं -बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिंगन करने लगते हैं - उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है l अरी सखी ! वह तो प्रसन्न हो कर बड़े ही प्रेम से उनके ऊपर अपने जीवन ही निछावर कर देता है - नन्ही-नन्ही फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो l  कभी-कभी बादलों की ओट में छिपकर देव्तालोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं l
                 सतीशिरोमणि यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुंवर ग्वालबाल के साथ खेल खेलने में बड़े निपुण हैं l देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसीसे सीखा नहीं l  अपने ही अनेकों प्रकार की राग-रागनियाँ उन्होंने निकल लीं l वंशी की परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकने पर भी उनके हाथ से निकलकर वंशी ध्वनि  में तल्लीन हो ही जाता है l उनकी वह वंशी ध्वनि  और वह विलास भरी चितवन हमारे ह्रदय मैं प्रेम के मिलन की आकांक्षा का आवेग बढ़ा देती है l हम उस समौय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं की हिल-डोल तक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)    
   

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