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अरी सखी ! उनके गले में तुलसी की मधुर माला की गन्ध उन्हें बहुत प्यारी लगती है l इसीसे तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं l जब वे बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर मोहित कर देते हैं l हम गोपियाँ भी तो अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहती हैं l
नंदरानी यशोदाजी ! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो l तभी तो तुम्हे ऐसे पुत्र मिले हैं l वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते हैं l उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्र्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती है l अरी सखी ! इसीलिए तो श्यामसुंदर ने गोवर्धन धारण किया था l अब वे सब गौओं को लौटकर आते ही होंगे; देखो, सांयकाल हो चला है l वे दिन भर जंगलों में घूमते-घूमते थक गए हैं l फिर भी अपनी इस शोभा से हमारी आँखों को कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं l देखो, हे यशोदा की कोख से प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हमारी आशा-अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए ही हमारे पास चले आ रहे हैं l
सखी ! देखो कैसा सौन्दर्य है l गले में वनमाला लहरा रही है l सोने के कुण्डल की कान्ति से वे अपने कोमल कपोलों को अलंकृत कर रहे हैं l देखो, देखो सखी ! ब्रज विभूषण श्रीकृष्ण गजराज के समान मदभरी चाल से इस संध्या वेला में हमारी ओर आ रहे हैं l उदित होने वाले चन्द्रमा की भांति ये हमारे प्यारे श्यामसुंदर समीप चले आ रहे हैं l बड़ भागिनी गोपियाँ का मन श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था l वे श्रीकृष्ण मय हो गयी थीं l उन्हीं की लीलाओं का गान करके उसी में रम जातीं l इस प्रकार उनके दिन बीत जाते l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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