महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरा पुरी में बिता कर प्रात:काल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिए l वे इस प्रकार सोचने लगे l 'मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा' l ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते - उन भगवान के दर्शन मेरे लिया अत्यंत दुर्लभ है, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिए वेदों का कीर्तन l परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही l अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गए l आज मेरा जन्म सफल हो गया l क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-पतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं l ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की अपसना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिए भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं - भगवान् के वे ही चरणकमल मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा l भगवान् विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं l वे सौंदर्य की मूर्तिमान निधि हैं l आज मुझे उन्ही का दर्शन होगा l अवश्य होगा l आज मुझे सहज ही आँखों का फल मिल जायेगा l भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत के दृष्टा मात्र हैं l वे अपनी योगमाया से ही अपने-आप में भ्रूविलास मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि के सहित अपने स्वरुपभूत जीवों की रचना कर लेते हैं l जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं l अपनी ही बनायीं मर्यादा का पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिए l वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज ब्रज में निवास कर रहे हैं और वहीँ से अपने यश का विस्तार कर रहे हैं l उनका यश कितना पवित्र है l वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं l सबके परम गुरु हैं l और उनका रूप-सौंदर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेनेवाला है l जो नेत्रवाले हैं, उनके लिए वह आनन्द और रस की चरम सीमा है l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप , स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो , जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण , उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं – विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है , उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क
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