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जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिए तुरंत रथ से कूद पडूँगा l उनके चरण पकड़ लूँगा l बड़े-बड़े योगी-यति आत्म साक्षात्कार के लिए मन-ही-मन अपने ह्रदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊंगा और लोट जाऊंगा उन पर l मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलों में गिर जाऊंगा , तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे ? इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान् के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व - इन्द्रपद प्राप्त कर लिया l अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव से खड़ा हो जाऊंगा l वे मुस्कराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे l उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायेंगे और मैं नि:शंक हो कर सदा के लिए परमानन्द में मग्न हो जाऊंगा l मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यंत हित चाहता हूँ l उनका आलिंगन प्राप्त होते ही - मेरे कर्ममय बंधन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ , टूट जायेंगे l तब मेरा जीवन सफल हो जायेगा l भगवान् श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया - उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है l न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय l न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद है और न तो शत्रु l उनकी उपेक्षा का पात्र कोई नहीं है l भगवान् श्रीकृष्ण भी , जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं - वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं l मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊंगा और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायेंगे l वहां सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे l और मैं उनको आनन्द से निहारता रहूँगा l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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