जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, जुलाई 31, 2012

भजन क्यों नहीं होता ?


भजन क्यों नहीं होता ?
यह प्रबल मोह की ही महिमा है की बार बार दुखो का अनुभव करता हुआ भी मनुष्य उन्ही दुखदायी भोगो को चाहता है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है - ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुण दुःख उपजे | हिव अनुकूल बिसारी सूल सठ पुनि खल पतिहि भजे || लोलुप भ्रम गृह पसु ज्यु तह सर पढ़ त्रान बजे | तदपि अधम बिचरत तेहि मार्ग कबहू न मूढ़ लजे || 'जैसे युवती स्त्री संतान-प्रसव के समय दारुण दुःख का अनुभव करती है,परन्तु वह मुर्ख सारी वेदना को भूलकर पुन्न उसी दुःख के स्थान पति का सेवन करती है | जैसे लालची कुत्ता जहा जाता है वही उसके सर पर जूते पढ़ते है तोह भी वह नीच पुन्न उसी रस्ते भटकता है ,उस मूढ़ को जरा भी लाज नहीं आती |' बस, यही दशा मोह्ग्रह्स्त मानव की है | बार बार दुःख का अनुभव करने पर भी उन्ही विषयों में सुख खोजता है | इसी मोह के कारण वह भगवान् का भजन नहीं करता | भगवत कृपा से जब यथार्थ सत्संग का सूर्य उदय होता है,तब मनुष्य के मोह निशा भंग होती है और वह विवेक के मंगल प्रभात का दर्शन प्राप्त करता है | यथार्थ सत्संग वही है जो इसह मोह का नाश करने में समर्थ हो | जिस संग से विषय-विमोह और विषयाशक्ति बढती है वह तो कुसंग ही है | यह मोह की ही महिमा है की अपने को साधू , जीवन्मुक्त, भक्त या महात्मा मानने तथा बतलाने वाले लोग भी विषय कामना करते है और विषयों का महत्त्व मानते है | सच्चे संत, महात्मा या भक्त तोह वही है जिनका विषय-विमोह या भोग-विभ्रम सर्वथा मिट गया है | जिनकी दृष्टी में सांसारिक विषयों का भगवान् के अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नहीं रहा है और रहा है तोह विनोद या खले के रूप में ही | अथवा उन संत-साधको का सत्संग भी बड़ा लाभदायक है , जिनकी दृष्टी में संसार के भोग विष या मॉल के सदर्श घ्रणित और त्याज्य हो चुके है | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

सोमवार, जुलाई 30, 2012

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ?
सुनहु उमा तह लोग अभागी | हरी तजि होही विषय अनुरागी || ते नर नरक रूप जीवत जग , भव - भंजन - पद विमुख अभागी | निसी बासर रूचि-पाप असुची मन ,खल मति मलिन, निगम पथ त्यागी || * * * * * * * * * * तुलसीदास हरिनाम सुधा तजि, सठ हठी पियत विषय-विष मांगी | सुकर स्वान सृगाल सरिस जन , जनमत जगत जानने दुःख लागी ||
अत मानव जन्म की सफलता इसी में है की मनुष्य अथक प्रयत्न करके भगवान् को या बह्गावत प्रेम कोप्राप्त कर ले | कम से कम भगवत्प्राप्ति के पवित्र मार्ग पर आरूढ़ हो ही जाये | इसके लिए सत्संग करे और सत्संग में भगवान् के स्वरुप, महत्व तथा उनकी प्राप्ति ही मानव जीवन एकमात्र परम उद्देश्य है - यह जानकार उसी में लग जाये | मनुष्य को यह बड़ा भरी मोह हो रहा है के 'सांसारिक भोगो में सुख है ' | यह मोह जब तक नहीं मिटता , तब तक वह कभी किसी देवता का आराधन भी करता है तोह इसके फलस्वरूप वह सांसारिक विषय भोग ही चाहता है | वह छुटना तोह चाहता है दुःख से और प्राप्त करना चाहता है सुख को - परन्तु विषय सुख की भ्रान्ति वस् मोह से वह बार बार प्राप्त करना चाहता है विषय भोगो को ही , जो दुःख के उत्पत्ति स्थान है - दुःख के खेत है |
बिनु सत्संग न हरी कथा तेहि बिनु मोह न भाग | मोह गए बिनु राम पद होए न दृढ अनुराग || सत्संग के बिना भगवत कथा सुननें को नहीं मिलती | भगवत कथा के बिना उपयुक्त मोह का नाश नहीं होता और मोह मिटे बिना भगवत चरणों में दृढ प्रेम नहीं होता | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

रविवार, जुलाई 29, 2012

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ?
पाप बनने में प्रधान कारण है - पाप में अज्ञानपूर्ण श्रधा या आस्था | मनुष्य की विषयों में आसक्ति तथा कामना होती है और संग दोष से वह पापो को ही उनकी प्राप्ति तथा सरक्षण सवर्धन में हेतु मान लेता है | फिर उतरोतर अधिक से अधिक पापो में ही लगा रहता है | संसार बंधन से छुटने के लिए निस्काम्भाव से तोह वह भगवान् को भजने के कल्पना भी नहीं कर पता, सकाम भाव से भी भगवान् को नहीं भजता, उधर उसकी वृति जाती ही नहीं और वह दिन रात नये नये पापो में उलज्हता हुआ सदा सर्वदा अशांति का अनुभव करता है | तथा परिणाम में घोर नार्को की यातना भोगने को बाध्य होता है | भगवान् ने स्वयं कहा है 'अर्जुन ! ऐसे मूढ़ (मनुष्य जनम के चरम और परम लक्ष्य ) मुझ (भगवान्) को न पाकर जन्म जन्म में - हजारो लाखो बार असुरी योनी को प्राप्त होते है तदन्तर उससे भी अधम गति में - नरको में जाते है |'(गीता १६\२०) भवाट्वी में भटकते हुए जीव को अकारण करुण भगवान् कृपा करके मनुष्य शारीर प्रदान करते है , यह देव दुर्लभ शारीर मिलता ही है केवल - भगवत्प्राप्ति का सफल साधन करने के लिए | इशी के लिए इस जीवन में विशेष रूप से 'बुधि' दी जाती है , पर मनुष्य परमात्मा के दुर्लभ देंन - उस बुधि को भोगासक्ति से पापर्जन में लगा कर केवल भगवत्प्राप्ति के साधन से वंचित नहीं होता , वरं बहुत बड़े पापो का बोजह लाधकर दुर्गति को प्राप्त होता है | यह मानव जीवन के सबसे बड़ी और ,महान दुर्भाग्य रूप विफलता है | इस्सी से विस्यनुरागी मनुष्य हो भाग्यहीन बतलाया गया है |
*********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

शनिवार, जुलाई 28, 2012

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ?
दुसरे वे पापी है, जो परिस्थिती या दुर्बलता के कारण बड़े से बड़ा पापकर्म तोह कर बैठते है,परन्तु वे उस पाप को पाप सम्जहते है , पाप करके पश्चाताप करते है,पाप उनके हृदय में शूल से चुभते है और वे उससे त्राण पाने तथा भविष्य में पापकर्म सर्वथा न बने, इसके लिए सदा चिंतित और सचेस्ट रहते है, ऐसे लोग कही आश्रय , आश्वासन न पाकर अंत में भगवान् को ही परम आश्रय मानकर करुण भाव से उनको पुकारते है | भगवान् कहते है - 'अत्यंत दुराचारी (पाप कर्मी मनुष्य ) भी यदि मुझ (भगवान्) को ही एकमात्र शरणदाता परम आश्रय मानकर दुसरे किसी का कोई भी आशा भरोश न रख कर (पाप नाश और मेरी भक्ति की प्राप्ति के लिए ) केवल मुझको भजता है, आर्त होकर एकमात्र मुझको ही पुकार उठता है | उसे साधू ही मानना चाहिए; क्युकी उसने एकमात्र मुझ (भगवान् ) को ही परम आश्रय मानने और केवल मुझको ही पुकारने का सम्यक निश्चय कर लिया है | केवल मानने की ही बात नहीं, वह तुरंत ही धर्मात्मा (पापकर्मो से बदलकर धर्म स्वरुप ) बन जाता है और भगवत्प्राप्ति रूप परमशान्ति को प्राप्त होता है | अर्जुन ! तुम यह सत्य समजो के मुझको इश प्रकार भजने वाले भक्त का कभी नाश (अध् पात) नहीं होता |' इस दोनों प्रकार की पापिओ में यही अंतर है की पहला पाप को पाप न मानकर गौरव तथा अभिमान की वस्तु मानता है, वह काम-क्रोध-लोभादी रूप असुरभाव को ही परम आश्रय सम्जह्कर उसी के परायण रहता है तथा नीच कर्मो की सिद्धि में ही सफलता का अनुभव करता है और दूसरा पापी पाप को पाप मानकर उनसे छुटना चाहता है और शरणागत वत्सल भगवान् को ही एकमात्र परम आश्रय मानकर परम श्रद्धा के साथ उसका भजन करना चाहता है | इस्सी से यह भजन कर सकता है और सीघ्र ही पापमुक्त होकर भगवान् को प्राप्त कर लेता है | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

शुक्रवार, जुलाई 27, 2012

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ?
भगवान् एक है, उन्ही से अनंत जगत की- जगत के समस्त चेतना चेतन भूतो के उत्पत्ति हुई है , उन्ही में सबका निवास है ,वही सबमे सदा सर्वदा व्याप्त है, अत एव उनकी भक्ति का, उनके ज्ञान का और उनकी प्राप्ति का अधिकार सभी को है | किसी भी देश , जाती धर्म,वर्ण,वर्ग का कोई भी मनुष्य -स्त्री पुरुष अपनी अपनी विसुध पद्दति से भगवान् का भजन कर सकता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है | परन्तु भजन में एक बड़ी बाधा है - भगवान् में अविस्वाश और संसार के भोगो में विश्वास , बस इसी कारन - इसी मोह या अविद्या के जाल में फशा हुआ मनुष्य भगवान् का कभी स्मरण नहीं करता और भोग विषयों के लिए विभिन्न प्रकार के कुकार्य करने में अपने अमूल्य जीवन को खोकर आगे के भयानक दुखभोग के अचूक साधन को उत्पन्न कर लेता है | मनुष्य में कमजोरी होना आश्चर्य नहीं , वह परिस्थिथि वश पाप कर्म भी कर सकता है, परन्तु यदि उसका भगवान् का विश्वास है, भगवान् के सौहार्द और उनकी कृपा पर अटूट और अनन्य श्रधा है तोह वह भगवान् का आश्रय लेकर पाप समुद्र से उबर सकता है | और भगवान् के सुखद गोद को प्राप्त कर सकता है | परन्तु जो भोगो को ही जीवन का एकमात्र धी और सुख का परम साधन मान कर उन्ही का आश्रय ले दिन रात उन्ही के चिंतन, मनन, और उन्ही की प्राप्ति के प्रत्यत्न में तलीन रहता है, उसका जीवन तोह पापमय बन जाता है ,वह कभी भगवान् को भजता ही नहीं | भगवान् ने गीता में दो तरह के पापियो का वर्णन किया है | 'वे पापकर्म करने वाले मसुया तोह मुझको (भगवान् को ) भजते ही नहीं, जो मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य (भगवतप्राप्ति ) को भूलकर प्रमाद तथा विषय सेवन में लगे रहने की मूढ़ता को स्वीकार कर चुके है , जो विस्याशक्ति तथा विसय्कामना के वश होकर नीच कर्मो में ही लगे रहते है और अपने मानव जीवन को अदाहम बना चुके है , माया के द्वारा जिनका विवेक हरा जा चुका है और जो असुरो के भाव - काम, क्रोध , लोभादी के आश्रय लेकर जीवन को आसुरी बना चुके है |' (गीता ७\२५) ऐसे लोग न तोह भगवान् में स्रध्हा रखते है और न भजन के ही आवस्यकता सम्जहते है , वे दिन रात नए नए पाप कर्मो में प्रवर्त होते रहते है, विविध प्रकार के पाप करके गौरव का अनुभव करते और सफलता का अभिमान करते है एवं पापो को ही जीवन का सहारा मानकर उतरोतर गहरे भव समुद्र में डूबते है | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष
आप लोगो ने मुझे माला पहनाई, सुगन्धित पुष्पों के सुन्दर हार पहनाये - यह आपकी बड़ी ही कृपा है | जिस समय में हार पहन रहा था , अपनी प्रसंसा सुन रहा था, उस समय मेरे मन में आया के हम गीता जी में रोज पढ़ते है - 'तुल्यानिन्दतंस्तुति: |' तोः इस प्रशंसा तथा फूलो के हारो के स्थान पर गलिया सुनने को मिलती और पुष्पहार के बदले जूतों के हार मिलते तोह क्या मेरा यही भाव रहता, जो प्रशंसा सुनने में और हार पहने के समय रहा है | यदि नहीं तोह, फिर यह समता के बात पढ़ कर मैंने क्या लाभ उठाया | सच तोह यह है की में मान बड़ाई का विरोध तोह करता हु, परन्तु मेरे मन में मान बड़ाई की छिपी वासना है, उसी की पूर्ति हो रही है | यदि वासना होती और सुख मिलता , मान बड़ाई में गाली और जूते के हार की भावना होती तोह में यहाँ से भाग जाता और आप मुझे तोह हार पहना सकते , मेरी प्रशंसा हे कर पाते | पर यह मेरी दुर्बलता है | आप लोगो का तोह स्लाघ्य गुण ही है | हमारे स्वामी रामसुख दास जी तथा स्वामी चक्रधर जी हार नहीं पहनते तोह उन्हें कौन पहना सकता है ? कौन कह सकता है मेरे मान बड़ाई का विरोध करने में भी मान बड़ाई छिपी वासना काम कर रही है | दूसरी बात है - हार में व्यर्थ खर्च की | यह हार किसी भी काम में नहीं आते | एक बार पहने की उतार कर रख दिए | इनसे भगवत पूजन या देव पूजन होता तोह इनकी कुछ सार्थकता थी | नहीं तोह यह सुन्दर पुष्प वाटिका के शोभा बढ़ाते | हमर देश अभ भी बड़ा दरिद्र है जहा करोडो भाई बहिन भरपेट भोजन नहीं पाते , वह तोह अच्छा खाना पहनना , अच्छे मकानों में रहना , गलीचो और सोफों पर बैठना ही अनुचित है , फिर पुष्प हारो में पैसा कर्च करना तोह उचित कैसे कहा जा सकता है | यह मेरा भी दोष है | में क्या कहू | अब रही छाया चित्र (फोटो ) की बात | सो हाड मॉस के इस सरीर का चित्र क्या महत्व रखता है | चित्र तोह भगवान् या संतो केलाभ्दायक होते है | मुझ जैसे मनुष्यों का चित्र उतरवाना तोह सर्वथा उपहासास्पद ही है | महाभारत में भगवानने अर्जुन को उपदेश दिया था के बड़ो के मुह पर उनकी निंदा करना उनकी हत्या करना है और अपन मुह से अपनी बड़ाई करना आत्महत्या है | यह बड़ा ही गहिर्त कार्य है | जैसे अपने मुख से बड़ाई करना आत्महत्या है , ऐसे ही अपने कानो से बड़ाई सुनना भी आत्महत्या के सदर्श है | पर यह आत्महत्या तोह हम बड़े सोंक से करते है | क्या कहा जाये | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

बुधवार, जुलाई 25, 2012

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष
आपको जो मुझमे गुण समूह के दर्शन हुए है और जिनका आप लोगो ने मधुर सब्दो में वर्णन किया है, वे वस्तुत मुझमे नहीं है | यह मैं आपसे सत्य कहता हु | आपको गुण दीखते है इसमें आपका मेरे प्रति अकृत्रिम प्रेम ही कारण है अथवा यह आपकी केवल सद्गुण दर्शिनी द्रिस्टी का परिणाम है | किसी में गुण समूह देखकर कोई दूसरा उसका वर्णन करता है, तब उसमे प्राय तीन बाते होती है :- (१) वह इतना महान्हाई के उसे जगत में सर्वर्त्र वैसे ही केवल गुण ही दीखते है , जैसे ब्रह्मदर्शी ज्ञानी को अथवा भगवतप्रेमी को सर्वत्र ब्रह्म या भगवान की ही अनुभूति होती है| (२) या उसे गुणों के साथ दोष भी दीखते है और वह केवल गुणों को ही ग्रहण करता है | दोष को ग्रहण करता ही नहीं | (३) अथवा उसे गुण दोष दोनों दीखते तोह है पर वह दोष का वर्णन न करके गुण का ही वर्णन करता है | इन तीन ही बातो में गुण वर्णन करने वाले का महत्व है , यह उसका आदर्श गुण है | गुण सुनने वाला यदि गुण वर्णन करने वाले के इश महत्व को न समजह कर बिना ही हुए अपने में उन गुणों को आरोप कर लेता है , अपने को उन गुणों से संपन्न मान लेता है , तोह वह अनुचित लाभ उठाना का प्रयत्न करता है | यह उसकी मुर्खता मात्र है, क्युकी किसी के द्वारा गुण बताये जाने से गुण तोह आ नहीं गए | किसी कंगाल को यदि कोई करोडपति बता दे तोह इससे वह करोडपति तोह हो नहीं जाता | हा यदि वह मान लेता है तोह अपने आपको धोखा देने की मुर्खता अवस्य करता है | आप लोग अपनी सध्भावना से मुझे यह बतला दे की में आप लोगो के सदभाव का हार्धिक सम्मान करता हुआ भी, आपके ईश महत्वपूर्ण गुण से शिक्षा लेता हुआ भी अपने आपको धोखा देने के मुर्खता न कर बैठू | आप लोगो ने मेरा जो परिचय दिया है,यह तोह आपके सदभाव तथा सदाचार का पवित्र परिचय है | मेरा यथार्थ परिचय तोह मुझको है और वह यह है के जगत में जो करोडो मनुष्य है , उन्ही से में भी एक हु | जैसे उनमे अनेक दुर्बलताए भरी है, वैसे ही मुझमे भी है | में उनसे किसी भी बात में बढ़कर नहीं हु | हा इतना अवस्य है के प्राणिमात्र के सहज सुहृद श्री भगवान् के अनन्त कृपा मुझ पर है; वह कृपा तोह सभी पर असीम है, उनकी कृपा से मुझे उस कृपा के दर्शन होते है | पर इसमें भी अकारण कृपालु भगवान् का ही महत्व है | मेरा क्या है ? *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

मंगलवार, जुलाई 24, 2012

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष
मनुष्य जहा सर्व जीवो के अपेक्षा विलक्षण शक्ति सामर्थ्य युक्त है,वह वह एक ऐसी दुर्बर्लता को धारण करता है, जो पशु पक्षी, किट-पतंगों में नहीं है | यह दुर्बलता है - मान बड़ाई की इच्छा , यश कीर्ति की कामना | यह बड़े बड़े त्यागी कहलाने वालो में भी प्राय: पाई जाती है | इसको लोग दोष की वस्तु नहीं मानते और इतिहास में नाम अमर रहने की वासना रखते है और कामना करते है | यह मीठा विष है , जो अत्यंत मधुर प्रतीत होता है ; परन्तु परिणाम में साधन जीवन की समाप्ति का कारण बन जाता है | मान बड़ाई किसकी ? शरीर की और नाम की ! जो शरीर और नाम को अपना स्वरुप मानता है और उनकी पूजा-प्रतिष्टा, उनका नाम यश चाहता है , वह नाम रूप में अहं भाव रखने वाला ज्ञानी है या अज्ञानी ? यह प्रत्यक्ष है की 'शरीर' माता पिता के रज-वीर्य का पिंड है और माता के गर्भ में इसका निर्माण हुआ है | यह आत्मा नहीं है और 'नाम' तोह प्रत्यक्ष कल्पित है | जब यह माता के गर्भ में था,तब तोह यही पता नहीं था के लड़की है या लड़का | प्रसव होने के बाद नामकरण हुआ | वह नाम अच्छा नहीं लगा, दूसरा बदल गया,तीसरा बदल गया | न मालूम कितनी बार परिवर्तन हुआ | ऐसे शरीर ('रूप ') और 'नाम' में अहता कर, उनको आत्मा मन कर उनकी पूजा प्रतिष्ठा की कामना करना प्रत्यक्ष अज्ञान के जयघोषणा है | अपने अज्ञान का साक्षात् परिचय है | परन्तु किससे कहा जाये और कौन कहे ! कूए जो भांग पड़ी है | बड़े बड़े त्यागी महात्मा अपने जीवन काल में अपनी धातु मूर्ति का निर्माण करवा कर, छायाचित्रों को देकर उनकी पूजा करवाते है; अपने नाम का जप करवाते है | अपने को इश्वर या भगवान् कहाते है और स्वयं कहते जरा भी सकुंचित नहीं होते, वरं इसमें गौरव तथा महत्त्व का अनुभव करते है | मेरी समजह में तोह यह मोह है और इस मोह का सीघ्र भंग होना अति अवश्यक है | आप लोगो ने जिस अकृत्रिम स्नेह , वात्सल्य , प्रेम, आत्मीयता ,शील और सौजन्य तथा उदारता के साथ हमलोगों के प्रति जो आदर्श वर्ताव किया है और यात्रा ट्रेन के प्रत्येक यात्री को सुख सुविधा देने का जो महान प्रयास किया है, उसके लिए हम सभी आपके कृतग्य है | मैं तोह आपके आदर्श निष्काम तथा विसुध प्रेम को प्राप्त कर कृतार्थ हो गया हु | और आपने सदा के लिए मुझे प्रेम-ऋणी बना दिया है | मेरे पास सब्द नहीं है,जिनके द्वारा में अपने ह्रदय के भाव प्रगट कर सकू | में आपका चिर ऋणी हु | वास्तव में प्रेम का कोई बदला हो ही नहीं सकता | में आपके प्रेम के पवित्र भावना से सदा सर्वदा अपने ह्रदय को पवित्र बनाये रखने चाहता हु | सदा सर्वदा इस सुधा-सीन्चन से ह्रदय को हरा भरा रखना चाहता हु | *********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************

सोमवार, जुलाई 23, 2012

महामना मालवीय जी के कुछ भगवनाम -सम्बन्दी संस्मरण

महामना मालवीय जी के कुछ भगवनाम -सम्बन्दी संस्मरण
महामना एक बार गोरखपुर पधारे थे और मेरे पास ही दो तीन दिन ठहरे थे | उनके पधारने के दुसरे दिन प्रात: काल में उनके चरणों में बैठा था | वे अकेले ही थे | बड़े स्नेह से बोले -"भैया ! मैं तुम्हे आज एक दुर्लभ तथा बहुमूल्य वस्तु देने चाहता हु | मैंने इसको अपनी माता से वरदान के रूप में प्राप्त किया था | बड़ी अद्भुत वस्तु है | किसी को आज तक नहीं दी , तुमको दे रहा हु | देखने में चीज छोटी से दिखेगी पर है महान 'वरदान रूप' | इस प्रकार प्राय आधे घंटे तक वे उस वस्तु के मेहता पर बोलते गए | मेरी जिज्ञासा भी बढती गयी | मैंने आतुरता से पूछा - 'बाबू जी ! जल्दी दीजिये , कोई आ जायेंगे |' तब वे बोले - लगभग चालिश वर्ष पहले की बात है | एक दिन मैं अपनी माता जी के पास गया और बड़ी विनय के साथ उन्स्से यह वरदान माँगा के आप ऐसा वरदान दीजिये , जिससे में कही भी जाऊ सफलता प्राप्त करू |' "माता जी ने स्नेह से मेरे शीर पर हाथ रखा और कहा - 'बच्चा - ! बड़ी दुर्लभ चीज दे रही हु | तुम जब कही भी जाओ तोह जाने के समय 'नारायण नारायण ' उच्चारण कर लिया करो | तुम सदा सफल होअगे |' मैंने स्राध्हा पूर्वक सर चढ़ा कर माता जी से मन्त्र ले लिया | हनुमानप्रसाद ! मुझे स्मरण है, तबसे अभ तक में जब जब 'नारायण नारायण' उच्चारण करना भुला हु, तब तब असफल हुआ हु |नहीं तोह मेरे जीवन में - चलते समय 'नारायण नारायण ' उच्चारण कर लेने के प्रभाव से कभी असफलता नहीं मिली | आज यह महामंत्र परम दुर्लभ वस्तु मेरी माता की दी हुई महान वस्तु तुम्हे दे रहा हु | तुम इससे लाभ उठाना |" यो कह कर महामना गदगद हो गए | मैंने उनका वरदान सर चढ़ा कर स्वीकार किया और इससे बड़ा लाभ उठाया | अभ तोह ऐसा हो गया है के घर भर में सभी इसे सीख गए है | जब कभी घर से बहार निकलता हु , तभी बच्चे भी 'नारायण नारायण' उच्चारण करने लगते है | इस प्रकार रोज ही किसी दिन तोह कोई 'नारायण' की और साथ हे पूज्य माता जी के पवित्र स्मृति हो जाती है |

रविवार, जुलाई 22, 2012

सर्वार्थ साधक भगवनाम

सर्वार्थ साधक भगवनाम
  1. मजदूर हाथो से हर प्रकार का काम करते रहे और नाम जपते रहे | घर से काम के स्थान पर जाते -आते नाम जप करे |
  2. उच्च अधिकारी, मिनिस्टर, सेक्रेटरी,जज, मुंसिफ, जिलाधीश , परगना अधिकारी ,पोलिश ऑफिसर ,रेलवे अफसर तथा कर्मचारी .डाक तार के कार्यकर्ता, आदि सभी कर्मचारी सभी अपना अपना काम करते तथा आते जाते समय भगवान् का नाम जीभ से लेते रहे |
  3. व्यापारी , सेठ साहूकार ,उद्योगपति,दलाल आदि सब समय जीभ से भगवान् लेते रहे |
  4. गृहस्थ माँ बहिने चरखा कातते समय, चकी पिसते समय, पानी भरते समय , गौ सेवा करते समय , बच्चो का पालन करते समय, रसोई बनाते समय , धान कूटते समय तथा घर के अन्य काम करते समय भगवान् का नाम जपती रहे |
  5. पढ़ी लिखी बहने साज श्रींगार बहुत करती है , फैसन परस्त होती जा रही है, यह बहुत बुरा है; पर वे साज श्रींगार करते समय भगवान् का नाम जपे | अध्यापिकाए और शिक्षाअर्थनी छात्राए स्कूल कॉलेज जाते आते समय भगवान् का नाम ले |
  6. सिनेमा देखना बहुत बुरा है -- पाप है, पर सिनेमा देखने वाले, रस्ते में आते जाते समय तथा सिनेमा देखते समय जीभ से भगवान् का नाम जपे |
  7. इसी प्रकार ब्रह्मण , क्षत्रिय , वैश्य, सूद्र सभी नर नारी सब समय भगवान् का नाम ले | आवस्यकता हो तोह जेब में छोटी या पूरी १०८ मनियो की माला रखे |
  8. सब लोग अपने अपने घर में, गाव में , मोहल्ले में, अडोश पडोश में, मिलने जुलने वालो में इसका प्रचार करे | यह महान पुण्य का परम पवित्र कार्य है | याद रखना चाहिए - भगवान्नाम से सारे पाप-ताप ,दुःख संकंट, अभाव-अभियोग मिटकर सर्वार्थसिद्धि मिल सकती है , मोक्ष तथा भगवत प्रेम की प्राप्ति हो सकती है |
  9. मनुष्यों में वे भाग्यवान और निश्चय ही कृतार्थ है जो इस कलियुग में स्वयं भगवान् के नामका स्मरण करते है और दुसरो से करवाते है |
  10. इस महान कार्य में सभी लोग लगे , यह करबद्ध प्रार्थना है |

***************************************************************** दुःख में भगवत कृपा , हनुमान प्रसाद पोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ****************************************************************

शनिवार, जुलाई 21, 2012

सर्वार्थ साधक भगवनाम

सर्वार्थ साधक भगवनाम
इस प्रबल कलिकाल में जीवो के 'कल्याण' के लिए भगवान का नाम ही एकमात्र अवलंबन है |
नहीं कलि काल न भगति विवेकू | राम नाम अवलंबन एकु ||
पर मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त हो गया चला है की वह कहता है के 'मुझे अवकाश ही नहीं मिलता | में भगवान् का नाम कब तथा कैसे लू |' यद्यपि यह सत्य नहीं है | मनुष्य के लिए काम - सच्चा काम उतना नहीं है, जितना वह व्यर्थ केरकार्य को अपना कर्तव्य मानकर जीवन का अमूल्य समय नस्ट करता है और अपने को सदा काममें लगा पता है | वह यदि व्यर्थ के कार्यो को छोड़ कर उतना समय भगवान् के स्मरण में लगावे तोह उसके पास भजन के लिए पर्याप्त समय है | पर ऐसा होना बहुत कठिन हो गया है | ऐसे अवस्था में यदि जीभ के द्वारा नाम जप का अभ्यास कर लिया जाये तोह जितने देर जीभ बोलने में लगी रहती है, उसके सिवा प्राय: सब समय सारे अंगो से सब काम करते हुए ही नाम जप हो सकता है | जीभ नाम में लगी रहती है और काम होता रहता है | न काम रुकता है , न घर वाले नाराज़ होते है | बाद विवाद तथा व्यर्थ बोलना बंद हो जाने से वाणी पवित्र और बलवान हो जाती है, ज्हूटी निंदा से मनुष्य सहज हे बच जाता है, वाणी के अनर्गल उच्चारण से होने वाले बहुत से दोषों से वह सहज ही छूट जाता है | नाम जप से पापो का निश्चित नाश, अंत करण की सुद्धी होती है, उसकी तोह सीमा ही नहीं है | इसलिए ऐसा नियम कर लेना चाहिए की सुबह उठने के समय से लेकर रात को सोने के समय तक जितनी देर अवश्यक कार्य से बोलना पड़ेगा , उसे छोड़ कर शेष सब समय जीभ के द्वारा भगवान् का नाम जपता रहूँगा | अभ्यास से जितना ही यह नियम सिद्ध होगा, उतना ही अधिक भगवान् के कृपा से मानव-जीवन परम और चरम सफलता के समीप पहुचेगा | भगवान् के नाम में कोई नियम नहीं है | सभी जाति के, सभी वर्ग के, सभी नर नारी, बालक-वृद्ध , सभी समय, सभी अवस्थाओ में,भगवान् का नाम वही जो उसे प्रिय लगे - राम,कृष्ण, हरी,गोविन्द,शिव,महादेव,हर,दुर्गा,नारायण,विष्णु,माधव,मधुसुधन,आदि कोई भी नाम हो | भगवान् का नाम ले रहा हु , इश भाव से जपना चाहिए | जिनको कम समय मिलता हो- बोलना अधिक पड़ता हो - ऐसे लोग जैसे वकील, अध्यापक, दूकानदार आदि- वे घर में , कचहरी में , विद्यालय में और दुकान जाते -आते समय रास्ते में भगवान् का नाम लेते चले और हो सके तोह मन में स्मरण करते चले | विद्यार्थी स्कूल-कॉलेज जाते आते समय भगवान् का नाम ले | किसान हल जोतते , बीज बोते, निनार करते , पौधा लगते, पानी सीचते , खाद देते, खेती काटते आदि समय भगवान् का नाम जप करे |

शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

करने योग्य

करने योग्य
  1. 'भगवान् स्वभाव से ही दयालु और सुहृद है | भगवान् के मुज़्ह पर अहेतु कृपा बरसती रहती है | वे मेरे लिए जो कुछ भी फल विधान करते है , उसमे निश्चय ही मेरी आत्मा का परम कल्याण है | जो कुछ भी दुःख के रूप में आता है ,वह भगवान् का आशीर्वाद है और जैसे सोने को आग में तपा कर सुध किया जाता है, वैसे ही भगवान् दुखो में तपा कर मुझको सुध कर रहे है तथा अपने पास सदा के लिए बुला लेने की व्यवस्था कर रहे है | भगवान् मेरे है, भगवान् ही मेरे है और कुछ भी मेरा नहीं है | मुझे भगवान् कभी छोड़ते नहीं , छोड़ सकते नहीं | उन्होंने मुझको अपना बना लिया है | इश प्रकार दिन में कई बार निश्चय करना है' |
  2. 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे |
  3. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ||'
  4. इस नाम मन्त्र के १४ माला का जप रोज करना है | माला पर जप होने में सुभीता न हो तोह दिन भर में ढाई घंटा ( एकबार , या दो बार , या तीन बार ) में जप पूरा कर लेना चाहिए
  5. भगवान् के स्वरुप की पहले भलीभाती धारणा करके फिर धयान करना चाहिए |
  6. अपने पर भगवान् के महान कृपा समजह कर हर हालत में प्रसन्न रहना चाहिए | कभी न उदास होना चाहिए, न रोना |
  7. सबके साथ नम्रता का व्यवहार करना चाहिए तथा सहनशील बनना चाहिए |
  8. संसार के सम्बन्ध को नाटक के सम्बन्ध के तरह केवल खेल्मात्र मन्ना चाहिए , कभी राग, द्वेष, मोह नहीं करना चाहिए |
  9. जब जप-ध्यान में मन न लगे, तब अच्छी पुस्तके पढनी चाहिए तथा प्रत्येक काम को भगवान् के पूजा समजह कर करना चाहिए
***************************************************************** दुःख में भगवत कृपा , हनुमान प्रसाद पोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ****************************************************************

गुरुवार, जुलाई 19, 2012

भगवान् की अमोघ कृपा

भगवान की अमोघकृपा
संसार में नर नारीओ के चित स्वाभाविक ही लौकिक पदार्थो की कामना से व्याकुल रहते है और जब तक इन्द्रिय -मन-बुधि इस कामना कलुष से कलंकित रहते है, तब तक भगवान् की उपासना करता हुआ भी मनुष्य अपने उपास्य देवता से स्पष्ट या अस्पस्ट रूप से कामना पूर्ति की ही प्रार्थना करता है | यही नर नारीओ का स्वाभाव हो गया है | इसी से वे भगवत भाव के परम सुख से वंचित रहते है | असल में उपासना का पवित्रतम उद्देश्य ही है - भगवद्भाव से ह्रदय का सर्वथा और सर्वदा परिपूर्ण रहना | परन्तु वह ह्रदय यदि नश्वर धन-जन, यश-मान, विषय-वैभव, भोग विलाश आदि की लालसा से व्याकुल रहता है तो उसमे भगवद्भाव नहीं आता और उपासना का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ; किन्तु सत्संग के प्रभाव से यदि कोई भगवान् के अमोघ कृपा या आश्रय ग्रहण कर लेता है तोह दयामय भगवान् अनुग्रह करके उसके ह्रदय से विषय-भोग की वासना को हटा कर उसमे अपने चरनाविंद -सेवन के वासना उत्पन्न कर देते है | ***************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ****************************************************************

बुधवार, जुलाई 18, 2012

भक्त की भावना

भक्त की भावना
भगवान् नित्य मेरे साथ है, मुझे अकेले किसी परिस्थीथी का सामना करने की आवस्यकता नहीं | चाहने पर भगवान् का प्रेमभरा एवं विवेकपूर्ण परामर्श मेरे लिए प्रस्तुत है | उनका सहाय्य्य आबाध तथा सदा विजयी है | भगवान् अंतर्यामी रूप से नित्य मुझमे अवस्थित है | मैं अपनी किसी भी आवस्यकता के लिए भगवान् के सहाय्य पर निर्भर कर सकता हु - इश ज्ञान से में सदा अविचलित हु | में प्रतिदिन की छोटी छोटी समस्याओ को सुल्ज़ाने में भी भगवान् की सहायता चाहता हु | जब कभी मेरी आवस्यकता तीव्र होती है , अथवा जीवन में कोई विकट स्थिती उपस्थित होती है, तब में भगवान् से सहायता चाहता हु |मेरी आवस्यकता छोटी है या बड़ी, मैं इश बात का विचार किये बिना ही अंतर्मुख हो भगवान् की सहायता चाहता हु | भगवान् मुझे शक्ति देते है और विचलित होते हुए साहस के समय मुझे बल देते है | उनका ज्ञान मुझे अपने सामने आई प्रत्येक समस्या को सुल्ज्हने में मार्गदर्शन करता है | भगवान् का प्रकाश मेरे ग्रहण करने योग्य मार्ग को मेरे सामने अनाव्रत करके रख देता है, अत एव मेरे निश्चय करने में संदेह अथवा हिचक का कोई कारन नहीं है | मुझे भगवान् से केवल इस निश्चय के प्राप्ति के लिए के भगवान् अंतर्यामी रूप से नित्य मुझमे अवस्थित है और प्रत्येक आवस्यकता में वे ,मेरी सहायता करते है, प्राथन करने के आवस्यकता है |भगवान् मेरी शरण एवं शक्ति है , आवस्यकता के समय तत्काल अचूक रूप से प्राप्त होने वाली सहायता है | दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४

मंगलवार, जुलाई 17, 2012

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात
  1. सबसे विनयपूर्वक मीठी वाणी से बोलना |
  2. किसी की चुगली या निंदा नहीं करना |
  3. किसी के सामने किसी भी दुसरे के कही हुई बात को न कहना , जिससे सुनने वाले के मन में उसके प्रति द्वेष या दुर्भाव पैदा हो या बढे |
  4. जिससे किसी के प्रति सद्भाव तथा प्रेम बढे , द्वेष हो तोह मिट जाये या घट जाये , ऎसी ही उसकी बात किसी के सामने कहना |
  5. किसी को ऐसे बात कभी न कहना जिससे उसका जी दुखे |
  6. बिना कार्य जायदा न बोलना , किसी के बिच में न बोलना , बिना पूछे अभिमानपूर्वक सलाह न देना, ताना न मारना, साप न देना |
  7. अपने को भी बुरा भला न कहना , गुस्से में आकर अपने को भी साप न देना, न सर पीटना |
  8. जहा तक हो परचर्चा न करना, जगचर्चा न करना |
  9. आये हुए का आदर सत्कार करना, विनय सम्मान के साथ हस्ते हुए बोलना |
  10. किसी के दुःख के समय सहानुभूतिपूर्ण वाणी से बोलना, हसना नहीं,किसी को कभी चिढाना नहीं |
  11. अभिमान वश घरवालो को कभी किसी को मुर्ख, मन्द्भुधि, नीच,वृतिवाला तथा अपने से नीचा न मानना , सच्चे ह्रदय से सबका सम्मान-हित करना |
  12. मन में अभिमान तथा दुर्भाव न रखना, वाणी से कभी कठोर तथा निंदनीय सब्दो का उच्चारण न करना |
  13. सदा मधुर विनम्रता युक्त वचन बोलना | मुर्ख को मुर्ख कहकर उसी दुःख न देना |
  14. किसी का अहित हो ऐसे बात न सोचना, न कहना और न कभी करना |
  15. ऐसे ही बात सोचना, कहना और करना जिससे किसी का हित हो |
  16. धन, जन,विद्या,जाती,उम्र,रूप,स्वस्थ्य.बुधि आदि का कभी अभिमान न करना |
  17. भाव से, वाणी से , इशारे से भी कभी किसी का अपमान न करना, किसी की दिल्लगी न उडाना |

दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४, पेज ११८-११९

सोमवार, जुलाई 16, 2012

भक्त का कर्मयोग

भक्त का कर्मयोग
में भगवान् के लिए कर्म कर रहा हु | वे मेरे स्वामी है और में तन -मन से सच्चाई के साथ उनकी सेवा करने का प्रयत्न कर्ता हु | में भगवान् को ही जीवन में प्रथम स्थान देता हु , और प्रत्येक समय भगवान् के सनिधि कीतीव्र अनुभूति के साथ भगवत -कर्म में रत रहता हु | में जानता हु की मुज्मे सफलता प्रदान करने वाली योग्यताये इश्वर की देन है और मैं इन योग्यताओ का बुद्धिमानी एवं विवेकपूर्वक उपयोग कर्ता हु | यो करने से मेरे जीवन में निरंतर वीकाश एवं समृधि की वृद्धि होती है | में यह अनुभव करता हु के भगवान् के राज्य में प्रत्येक प्राणी का अपना उचित स्थान एवं उचित कार्य है | मैं तुछ अप्रन्संताओ , खिनताओ एवं विद्रोहों को कभी मन में स्थान नहीं पाने देता | में कभी दुसरे की अच्छी स्थिती से इर्ष्या नहीं करता | में कभी अपनी अथवा अपनी सफलता के तुलना दुसरो से नहीं करता | इसके विपरीत में परमपिता परमात्मा द्वारा मेरे लिए स्थिर किये आदर्श का अनुसरण करता हु और मानता हु , जो कुछ भी है श्रेस्ठ है | में अपनी प्रत्येक आवस्यकता के पूर्ति के लिए भगवान् पर विश्वास करता हु, क्युकी मैं जानता हु के वह बिना किसी भूल के उस मार्ग को मेरे सामने खोल; देंगे, जिसको पकड़ कर में अपने परमोच्च शुभ को प्राप्त कर सकू | में भगवान् के लिए कर्म करता रहू और मेरा प्रत्येक कर्म मानव-सम्मान एवं भगवान् के शान के अनुरूप होता है |

रविवार, जुलाई 15, 2012

हम भगवान् के ही है

हम भगवान् के ही है
यह सारा जगत - जगत के सब चेतना चेतन प्राणी भगवान् से निकले है और भगवान् ही सर्वर्त्र व्याप्त है | हम सभी जीव भगवान् के सनातन अंश है | भगवान् ही हमारे अभिन्न निमितोपदान कारण है | सब कुछ वही है | भगवन हमारे आत्मा है | भगवान् ही हमारे प्राण है | हमारा जीवन, हमारा प्रेम, हमारा आनंद , हमारे स्वासप्र्स्वाश - सब कुछ भगवान ही है | हम कभी भी, किसी प्रकार भी भगवान् से, भगवान् के प्रेम से, भगवान् के आनंद से, भगवान् की योगषेम करने वाली वृति से अपने को अलग नहीं कर सकते | उसकी व्यापकता से बहार नहीं जा सकते | भगवान् हमारे अंतरात्मा है - अत भगवान् हम को जितना यथार्थ रूप से जानते है , उतना हम स्वयं अपने को नहीं जानते | वे हमारे मन के अंदर छिपी -से छिपी बात को जानते है | वे परम आत्मीय है | वे स्वाभाव से परम सुहृदय है | उनका सहायक हस्तकमल सदा ही हमारे सर पर है, उनकी कृपा स्नेहमयी दृष्टि के सुधावृस्टी अनवरत हम पर हो रही है | वे नित्य निरंतर हमारे एहिक , पारलोकिक, पारमार्थिक योगषेम का वहां करते है | छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हमारे सभी काम करने को वे तयार है ; बसर्ते के हम अपनी मूर्खतावश उनके सहायक हाथ को उनके इच्छा अनुसार कार्य करने से रोके नहीं | फिर हमारे सभी कामो में उनका सहायक वरद हस्त काम करेगा -- चाहे हमारा वह काम घर में झाड़ू लगाना हो , चाहे व्यापार करना हो , चाहे सेवा सहायता करना हो और चाहे पारमार्थिक साधन करना हो | भगवान् के लिए छोटे बड़े सभी काम एक से है | शुड्र चिटी के जीवन का सञ्चालन भी वे ही करते है और सृष्टी कर्ता ब्रह्मा का जीवन भी उन्ही से चलता है | हमे इस बात का अनुभव करना चाहिये के भगवान् सदा हमारे साथ है , वे सर्वशक्तिमान , सर्वात्मा, सर्वलोक महेश्वर , सर्वातीत होते हुए हे हम पर आत्मीयतापूर्ण अनंत प्रेम करते है | जिस क्षण हमारा यह विश्वास हो जायेगा और हम ऐसे अनुभूति करेंगे , उसी क्षण हम समस्त बाधा-विग्न्हो से मुक्त हो कर , सारी बंधन मई परिस्थितियो और संकुचित सीमओं को लाँघ कर नित्य निर्भय , निश्चिंत तथा आनंद और शांति के मूर्त स्वरुप बन जायेंगे | सर्वाद स्मरण रखिये के 'हम भगवान् के ही है और भगवान् हमारे ही है |'

शनिवार, जुलाई 14, 2012

मृत्यु के समय क्या करे ?...2

मृत्यु के समय क्या करे ?
७. गले में रूचि के अनुसार तुलसी या रूद्राक्षके माला पहना दे | मस्तक पर रूचि के अनुसार त्रिपुंड या उधृरपुंडतिलक का पवित्र चन्दनसे - -गोपीचंदन आदि से कर दे | अपवित्र केसर का तिलक न करे | ७. रोगी के निकट रामरक्षा या मृत्युंजयस्रोत्र का पथ करे | एकदम अंतिम समय में पवित्र 'नारायण' नाम की विपुल धवनि करे | ९. रोगी को कस्ट का अनुभव न होता दीखे तोह गंगाजल या सुद् जल से उसे स्नान करा दे | कस्ट हो ताहो तोहनकरावे | १०. विशेष कस्ट न हो ताहो जमीं को धोकर उस पर गंगाजल ( हो तो ) के छींटे देकर भगवान्कानाम लिखकर गंगा की रज या व्रजरज दाल करचारपाई से निचे सुला दे | ११. मृत्यु के समय तथा मृत्यु के बाद भी 'नारायण' नाम की याअपने ईस्टभगवान् के तुमुल धवनि करे | जब तक अर्थी चली न जाये ,तब तक यथा शक्य कोई घरवाले रोये नहीं | १२. उसके शव को दक्षिण की और पैर करके सुला दे | तदन्तर सुद्ध जल से स्नान करवाकर, नविन धुला हुआ वस्त्र पहनाकरजातिप्रथा के अनुसार शव यात्रा ले जाये ; पर पिंडदान का कार्यजानकारविद्वान के द्वारा अवस्य कराया जाये | सम्शान में भी पिंडदान तथा अग्निसंस्कार का कार्य शास्त्रविधि के अनुसार किया जाये |रास्ते भर भगवान्नाम की धवनि, 'हरीबोल' . नारायण नारायण के धवनि होती रहे | सम्शान में भी भाग्वाचर्चा ही हो |
दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४, पेज१२९-१३०

शुक्रवार, जुलाई 13, 2012

मृत्यु के समय क्या करे ?

मृत्यु के समय क्या करे ?
मृत्यु के समय सबसे बड़ी सेवा है - किसी भी उपाय से मरणासन्न रोगी का मन संसार से हटा कर भगवान् में लगा देना | इसके लिए:- १. उसके पास बैठ कर घर की,संसार की, कारोबार की, किन्ही में राग द्वेष हो तोह उनकी ममता के पदार्थो की तथा अपने दुःख की चर्चा बिलकुल न करे | २. जब तक चेत रहे, भगवान् के स्वरुप की, लीला की तथा उनके तत्त्व के बात सुनाये,श्रीमद्भगवत गीता का (सातवे,नवे,बारहवे,चौदहवे,पन्द्रहवे अध्याय का विशेष रूप से) अर्थ सुनावे | भागवत के एकादश स्कंध,योग्वासिस्ट का वैराग्य प्रकरण,उपनिषदों के चुने हुए स्थलओ का अर्थ सुनावे | नाम कीर्तन में रूचि हो तोह नाम कीर्तन करे या संतो बह्क्तो के पद सुनाये | जगत के प्राणी पदार्थो की , राग द्वेष उत्पन्न करने वाली बात, ममता मोह को जगाने वाली बात तथा बढ़ाने वाली चर्चा भूल कर भी न करे | ३. रोगी को भगवान् के साकार रूप का प्रेमी हो तोह उसको अपने ईस्ट -भगवान् राम,कृष्ण,शिव,दुर्गा,गणेश-किसी भी भगवत रूप का मनोहर चित्र सतत दिखाते रहे | निराकार निर्गुण का उपासक हो तोह उसे आत्मा या ब्रह्म के सच्चिदानंद अद्वेत तत्व के चर्चा सुनाये | ४. उस स्थान को पवित्र धुप, धुए ,कपूर से सुगन्धित रखे , कपूर या घी के दीपक के शीतल परमोज्व्ल ज्योति उसे दिखावे | ५. समर्थ हो और रूचि हो तोह उसके द्वारा उसके ईस्ट भगवत्स्वरूप की मूर्ती का पूजन करवावे | ६. कोई भी अपवित्र वास्तु या दवा उसे न दे | चिकत्सको की राय हो तो भी उसे ब्रांडी (सराब) नशीली तथा जान्तव पदार्थो से बनी ऐलोपथी , होम्योपैथी दअवा बिलकुल न दे | जिन आयुर्वेदिक दवा में अपिवित्र तथा जान्तव चीजे पड़ी हो , उनको भी न दे | ने खान पान में अपवित्र तामसी तथा जान्तव पदार्थ दे | ७. रोगी के क्षमता के अनुसार गंगाजल का अधिक से अधिक या कम पान करावे | उसमे तुलसी के पते अलग पिस कर छानकर मिला दे | यो तुलसिमिस्रित गंगाजल पिलाता रहे |
दुःख में भगवत कृपा , हनुमानप्रसाद पोद्दार , गीता प्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४, पेज १२८-१२९

गुरुवार, जुलाई 12, 2012

संत वाणी

संत वाणी
  1. इश्वर का स्मरण करो तोह ऐसा करो के फिर दूसरी बार उसे याद करना ही न पड़े |
  2. अपने सब काम भूल कर सदा इश्वर का स्मरण करते रहो |
  3. परमात्मा के दर्शन में लीन होकर स्मरण करना भी भूल जाओ, यही उचे से उचा स्मरण है
  4. भाग्वादाश्रय और भगवान् नाम से पापो का समूल नाश हो जाता है यह निश्चित है |
  5. सारे संसार का एक ग्रास बना कर भी यदि बालक के मुह में दे दिया जाये तोह भी वह भूखा ही रहेगा | जिसका मन खान पान और गहने कपडे में बसा है, उसकी स्थितिपसु से भी गयी है |
  6. .पहने ओढने में सादगी का ख्याल रखना | शोकीनी की पोशाक और आडमभर से परे ही रहना |
  7. जिस समय लोग 'उन्मत' और 'मस्त' कह कर मेरी निंदा करेंगे तभी मेरे मन में गूढ़ तत्वज्ञान का उदय होगा |Align Center
  8. मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है ? इश्वर के सिवा किसी भी दूसरी चीज से प्रीती न जोढ्ना |
  9. जब ह्रदय में किसी से कुछ लेने की इच्छा ही नहीं तब जैसा हे धनि वैसे ही गरीब |

बुधवार, जुलाई 11, 2012

संत वाणी

संत वाणी
  1. सरीर न बुरा है, न अच्छा है, इसे जल्दी हरी भजन में लगाओ |
  2. एक श्री हरी की महिमा गया कर, मनुष्य के गीत न गाये |
  3. कथा कीर्तन करके जो द्रव्य देते या लेते है, वे दोनों हे भूले हुए है |
  4. जब तक जीवन है तब तक नाम स्मरण करे, गीता भागवत का सरवन करे और हरी मूर्ति का ध्यान करे |
  5. मुख में अखंड नारायण-नाम ही मुक्ति के उप्पर की भक्ति जानो |
  6. चौपड़ के खेल में गोटी को मारना और जीना जैसा है, ज्ञानी की दृष्टी में जीवो का बंध मोक्ष भी वैसा ही है |
  7. भगवान् कल्प वृक्ष है , चिंता मणि है | चित जो जो चिंतन करे उसी पूरा करने वाले है |
  8. एक शंन में पचासों जगह चक्कर लगा आने वाले इश मन को भगवान् दया करे तोह ही रोक सकते है |
  9. मन की एक बात बड़ी अच्छी है | जिस चीज का उसे चसक लगता है, उसमे वह लग जाता है , इसलिए इससे आत्मानुभव का सुख बराबर देते रहने चाहिए |

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

संत वाणी

  1. जो इश्वर के चरण-कमल पकड़ लेता है , वह संसार से नहीं डरता |
  2. पहले इश्वर के प्राप्ति का यत्न करो, पीछे जो इच्छा हो कर लेना |
  3. गुरु लाखो मिलते है , पर चेला एक भी नहीं मिलता | उपदेश करने वाले अनेको मिलते है, पर उपदेश पालन करने वाले विरले ही |
  4. भक्त का ह्रदय भगवान् की बैठक है |
  5. संसार के यश और निंदा की कोई परवाह न करके इश्वर के पथ मैं ही चलना चाहिए |
  6. एक महात्मा की कृपा से कितने जीवो का उद्धार हो जाता है |
  7. साधक के भीतर यदि कुछ भी आसक्ती है तोह समस्त साधना वर्थ चली जाएगी |
  8. जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है |
  9. जिस घर में नित्य हरी कीर्तन होता है वहा कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता |

शनिवार, जुलाई 07, 2012

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अब आगे................ अनेक प्रकार के वस्त्रों से विभूषित दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सव के समय श्वेत और श्याम गजशावक भली भांति सजा दिए गए हों l भगवान् श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए , उन्होंने उसे भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और इन्द्रिय-सम्बन्धी शक्तियां दीं और मृत्यु के बाद के लिए अपना सारुप्य मोक्ष भी दे दिया l इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सुदामा माली के घर गए l दोनों को देखते ही उसने पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया l और उसने प्रार्थना की - 'प्रभो ! आप दोनों के शुभागमन से हमारा जन्म सफल हो गया l हमारा कुल पवित्र हो गया l आप दोनों सम्पूर्ण जगत के परम कारण हैं l यद्यपि आप प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं l भजन करने वालों को ही भजते हैं - फिर भी आप की दृष्टि में विषमता नहीं है l क्योंकि आप समस्त प्राणियों और प्रदार्थों में समरूप से स्थित हैं l मैं आपका दास हूँ l भगवन ! जीव पर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्य में नियुक्त करते हैं l सुदामा माली ने इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान् का अभिप्राय जानकर बड़े प्रेम और आनन्द से भरकर अत्यंत सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पों से गुँथे हुए हार उन्हें पहनाये l सुदामा माली ने उनसे यह वर माँगा कि 'प्रभो ! आप ही समस्त प्राणियों के आत्मा हैं l सर्वस्वरूप आप के चरणों में मेरी अविचल भक्ति हो l आप के भक्तों से मेरा सौहार्द, मैत्री का सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियों के प्रति अहैतुक दया का भाव बना रहे' l भगवान् श्रीकृष्ण ने सुदामा को मांगे हुए वर दे दिए l इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वहां से विदा हुए l श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

शुक्रवार, जुलाई 06, 2012

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अब आगे................
भगवान् के इस प्रकार कहने पर अक्रूरजी कुछ अनमने से हो गए l उन्होंने पुरी में प्रवेश करके कंस से श्रीकृष्ण और बलराम के ले आने का समाचार निवेदन किया और अपने घर गए l भगवान् ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिक मणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे दरवाजे तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं l स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल स्त्रियों के उपयोग में आने वाले बगीचे) शोभायमान हैं l सड़क, बाज़ार, गली एवं चौराहों पर खूब छिडकाव किया गया है l स्थान-स्थान पर फूलों के गज़रे, जवारे (जौ के अंकुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं l वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपले फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भली-भांति सजाये हुए हैं l उस समय नगर कि नारियां बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखने के लिए झटपट अटारियों पर चढ़ गयीं l कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथ का कौर फेंक कर चल पड़ीं l सब का मन उत्साह और आनन्द से भर रहा था l कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती से चल रहे थे l उन्होंने अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हंसी तथा प्रेमभरी चितवन से उनके मन चुरा लिए l मथुरा के स्त्रियाँ चिरकाल से श्रीकृष्ण के लिए चंचल, व्याकुल हो रही थीं l आज उन्होंने उन्हें देखा l उन स्त्रियों ने नेत्रों के द्वारा भगवान् को अपने ह्रदय ले जाकर उनके आनंदमय स्वरुप का आलिंगन किया l उस समय उन स्त्रियों के मुखकमल प्रेम के आवेग से खिल रहे थे l भगवान् को देखकर सभी पुरवासी आपस में कहने लगे - 'धन्य है ! धन्य है !' गोपियों ने ऐसी कौन सी महान तपस्या कि है, जिसके कारण वे मनुष्मत्र को परमानन्द देनेवाले इन दोनों मनोहर किशोरों को देखती रहती हैं l इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि एक धोबी उनकी ओर आ रहा है l भगवान् श्रीकृष्ण ने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपडे माँगे l भगवान् ने कहा - 'भाई ! तुम हमें ऐसे वस्त्र दो, जो हमारे शरीर में पुरे-पुरे आ जाएँ l इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हम लोगों को वस्त्र दोगे, तो तुम्हारा परम कल्याण होगा l भगवान् सर्वत्र परिपूर्ण हैं l फिर भी उन्होंने इस प्रकार मांगने कि लीला की l परन्तु वह मूर्ख भगवान् की वस्तु भगवान् को देना तो दूर रह, वह क्रोध करने लगा l तब भगवान् श्रीकृष्ण ने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धडाम से धड से नीचे जा गिरा l यह देखकर उस धोबी के साथी सब-के-सब कपड़ों के गट्ठर वहीँ छोड़कर इधर-उधर भाग गए l भगवान् ने उन वस्त्रों को ले लिया और चल दिए l श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

गुरुवार, जुलाई 05, 2012

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अक्रूर जी को भगवान् श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्य रूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे l भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा - 'चाचाजी ! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या ? अक्रूरजी ने कहा - 'प्रभो ! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ है, वे सब आप में ही हैं l क्योंकि आप विश्वरूप हैं l जब मैं आप को ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो l उन्होंने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे l नन्दबाबा और ब्रजवासी तो पहले से ही वहां पहुँच गए थे, और मथुरापुरी के बाहरी उपवन में रूककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे l भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से मुस्कराते हुए कहा - 'चाचाजी ! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये l हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिए आयेंगे' l अक्रूरजी ने कहा - प्रभो ! आप दोनों के बिना मैं मथुरा नहीं जा सकता l स्वामी ! मैं आपका भक्त हूँ आप मुझे मत छोडिये l आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्द राय जी आदि आत्मीयों के साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये l हम गृहस्थ हैं l आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये l यदुवंश शिरोमणि ! आप देवताओं के भी आराध्य देव हैं l जगत के स्वामी हैं l आप के गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी हैं l उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं l नारायण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ l श्रीभगवान ने कहा - चाचाजी ! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृद-स्वजनों का प्रिय करूँगा l श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)

बुधवार, जुलाई 04, 2012

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन





         

अब आगे.............

              यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के ह्रदय में बड़ी जलन हो रही है, वे संतप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा 'मैं आऊँगा' यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरं बँधाया l  गोपियों को जब तक रथ कि ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही, तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से  वहीँ ज्यों-के-त्यों खड़े रहे l  परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था l अभी उनके मन को आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें l
              इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेग्वाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुना जी के किनारे पहुँच गए l वहां उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर अमृत के समान मीठा जल पिया  l अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे l उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि  श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं l अब उनके मन में शंका हुई कि 'वासुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूँ, अब वे जल में कैसे आ गए ? ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकाल कर देखा l वे उस रथ पर भी पूर्ववत बैठे हुए थे l उन्होंने यह सोचा कि मेरा भ्रम होगा l फिर डुबकी लगाई और देखा कि शेषजी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं l उनका बदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन है l एक हाथ में पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथों में शंख, चक्र, और गदा, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, गले में कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है l साथ ही सारी शक्तियाँ मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही है l भगवान् की वह झाँकी निरखकर अक्रूरजी का ह्रदय परमानन्द से लबालब भर गया l उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी l अब अक्रूरजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गदगद स्वर से भगवान् की स्तुति करने लगे l

श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
             

मंगलवार, जुलाई 03, 2012

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन





         

अब आगे..............

              देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है l इधर तो हम इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुंदर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत  दूर ले जाना चाहता है l सचमुच ऐसे अत्यंत क्रूर पुरुष का 'अक्रूर' नाम नहीं होना चाहिए था l और हमारे ये श्यामसुंदर भी तो कम निठुर नहीं हैं l देखो-देखो वे भी रथ पर बैठ गए l आज विथाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है l हम आधे क्षण के लिए भी प्राण वल्लभ नन्दनन्दन का संग छोड़ने में असमर्थ थीं l आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है  l अब भला, उनके बिना हम उन्ही की दी हुई अपर विरहव्यथा का पार कैसे पावेंगी  l वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे ह्रदय को बेध डालते हैं l उनके बिना भला हम कैसे जी सकेंगी ?
                गोपियाँ वाणी से इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था l वे विरह की सम्भावना से अत्यंत व्याकुल हो गयीं और 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव l ' - इस प्रकार ऊँची आवाज़ से पुकार-पुकार कर सुललित स्वर से रोने लगीं l गोपियाँ इस प्रकार से तो रही थीं l रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ l  अक्रूरजी संध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत होकर रथ पार सवार हुए और उसे हाँक ले चले  l इसी समय अनुराग के रंग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्रन्प्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं  और उनकी चितवन , मुस्कान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुई l अब वे अपने प्रियतम श्यामसुंदर से कुछ सन्देश पाने की आकांक्षा से वहीँ खड़ी हो गयीं l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)          

सोमवार, जुलाई 02, 2012

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन







अब आगे.........

              जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुंदर और गौरसुन्दर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी ब्रज में आये हैं, तब उनके ह्रदय में बड़ी व्यथा हुई l वे व्याकुल हो गयीं l भगवान् के स्वरुप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों कि  चित्त्वृतियाँ सर्वथा निवृत हो गयीं मानो वे समाधिस्थ - आत्मा में स्थित हो गयीं हो l गोपियाँ मन-ही-मन भगवान् कि लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुस्कान और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं l वे झुण्ड -कि-झुण्ड इकट्ठी हो कर इस प्रकार कहने लगीं l        
               गोपियों ने कहा - धन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे ह्रदय में दया का लेश भी नहीं है l यह कितने दुःख कि बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करनेवाले श्यामसुंदर का मुखकमल दिखलाया l और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रहे हो l सुचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत-ही अनुचित है l वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई ऑंखें तुम हमसे मूर्ख कि भांति छीन रहे हो l
                अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुंदर को भी नए-नए लोगों से नेह लगाने कि चाट पड़ गयी है l देखो तो सही - इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया ? आज कि रात का प्रात:काल मथुरा कि स्त्रियों के लिए निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा l आज उनकी बहुत दिनों कि अभिलाषाएं अवश्य ही पूरी हो जाएँगी l यद्यपि हमारे श्यामसुंदर धैर्यवान के साथ गुरुजनों कि आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा कि युवतियां अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीँ रम जायेंगे l फिर हम गँवार ग्वालिनों के पास हे लौटकर क्यों आने लगे l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)     

रविवार, जुलाई 01, 2012

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन








                भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अक्रूरजी का भलीभांति सम्मान किया l लक्ष्मी जी के आश्रय स्थान भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वास्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ?  फिर  भी भगवान् के परम प्रेमी भक्जन किसी भी वास्तु की कामना नहीं करते l
                भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - चाचाजी आपका ह्रदय बड़ा शुद्ध है l स्वागत है, मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ l मथुरा के आत्मीय सुहृदय, कुटुम्बी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? हमारा नाममात्र का मामा कंस तो हमारे कुल के लिए एक भंयकर व्याधि है l चाचाजी ! हमारे लिए यह बड़े खेद की बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिता को अनेकों प्रकार कि यातनाएं झेलनी पड़ीं  - तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े l मैं बहुत दिनों से चाहता था कि आपलोगों में से किसी-न-किसी का दर्शन हो l यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मेरी यह अभिलाषा पूरी हो गयी, सौम्य स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाईये कि आप का शुभागमन किस निमित्त से हुआ ?
                  तब अक्रूरजी ने इस प्रकार बतलाया कि 'कंस ने तो सभी यदुवंशियों से घोर वैर ठान रखा है l वह वासुदेवजी को मार डालने का भी उद्यम कर चुका है' l  अक्रूरजी ने कंस का सन्देश और जिस उद्धेश्य से उसने स्वयं अक्रूरजी को दूत बनाकर भेजा था और नारदजी ने जिस प्रकार वासुदेवजी के घर श्रीकृष्ण के जन्म लेन का वृतान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया l यह सब सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजी को कंस की आज्ञा सुना दी l तब नन्दबाबा ने कहा - कल प्रात:काल ही हम सब मथुरा की यात्रा करेंगे और वहां चलकर राजा कंस को गोरस देंगे l वहां एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है l  उसे देखने के लिए सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है हम लोग भी उसे देखेंगे'  l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)