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देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है l इधर तो हम इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुंदर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है l सचमुच ऐसे अत्यंत क्रूर पुरुष का 'अक्रूर' नाम नहीं होना चाहिए था l और हमारे ये श्यामसुंदर भी तो कम निठुर नहीं हैं l देखो-देखो वे भी रथ पर बैठ गए l आज विथाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है l हम आधे क्षण के लिए भी प्राण वल्लभ नन्दनन्दन का संग छोड़ने में असमर्थ थीं l आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है l अब भला, उनके बिना हम उन्ही की दी हुई अपर विरहव्यथा का पार कैसे पावेंगी l वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे ह्रदय को बेध डालते हैं l उनके बिना भला हम कैसे जी सकेंगी ?
गोपियाँ वाणी से इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था l वे विरह की सम्भावना से अत्यंत व्याकुल हो गयीं और 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव l ' - इस प्रकार ऊँची आवाज़ से पुकार-पुकार कर सुललित स्वर से रोने लगीं l गोपियाँ इस प्रकार से तो रही थीं l रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ l अक्रूरजी संध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत होकर रथ पार सवार हुए और उसे हाँक ले चले l इसी समय अनुराग के रंग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्रन्प्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं और उनकी चितवन , मुस्कान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुई l अब वे अपने प्रियतम श्यामसुंदर से कुछ सन्देश पाने की आकांक्षा से वहीँ खड़ी हो गयीं l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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