संसार में नर नारीओ के चित स्वाभाविक ही लौकिक पदार्थो की कामना से व्याकुल रहते है और जब तक इन्द्रिय -मन-बुधि इस कामना कलुष से कलंकित रहते है, तब तक भगवान् की उपासना करता हुआ भी मनुष्य अपने उपास्य देवता से स्पष्ट या अस्पस्ट रूप से कामना पूर्ति की ही प्रार्थना करता है | यही नर नारीओ का स्वाभाव हो गया है | इसी से वे भगवत भाव के परम सुख से वंचित रहते है | असल में उपासना का पवित्रतम उद्देश्य ही है - भगवद्भाव से ह्रदय का सर्वथा और सर्वदा परिपूर्ण रहना | परन्तु वह ह्रदय यदि नश्वर धन-जन, यश-मान, विषय-वैभव, भोग विलाश आदि की लालसा से व्याकुल रहता है तो उसमे भगवद्भाव नहीं आता और उपासना का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ; किन्तु सत्संग के प्रभाव से यदि कोई भगवान् के अमोघ कृपा या आश्रय ग्रहण कर लेता है तोह दयामय भगवान् अनुग्रह करके उसके ह्रदय से विषय-भोग की वासना को हटा कर उसमे अपने चरनाविंद -सेवन के वासना उत्पन्न कर देते है |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप , स्मरण और कीर्तन। इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है। परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो , जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है। जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ) जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण , उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं – विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है , उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है। उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क
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