जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, सितंबर 30, 2012

मानव-जीवन का लक्ष्य - भगवत्प्राप्ति







           भगवान् ने कहा है - 'माया बड़ी दुस्तर है l इस माया से कोई भी सहज में पार नहीं हो सकता, परन्तु मेरे शरणापन्न व्यक्ति इस माया से तर जाते हैं l ' भगवान् के अतिरिक्त जो कुछ भी है - असत है, माया है और उसको जीवन से निकालना है l भगवान् के शरणापन्न होने पर जीवन में से यह मिथ्यापन निकल सकता है l  मानव-जीवन में यही एकमात्र करनेयोग्य कार्य है l मानव-जीवन का यही एकमात्र कर्तव्य और उद्देश्य है l
           धन की प्राप्ति चाहनेवाला मनुष्य जैसे स्वाभिविक ही क्षुद्र-सी भी धनहानि के प्रत्येक प्रसंग से बचता है और लाभ का प्रत्येक कार्य करता है; वह ऐसा इसलिए करता है कि पैसे के रहने और मिलने में अपना लाभ मानता है और जाने में  या न रहने हानि; इसी प्रकार भगवान् का भजन करनेवाला पुरुष भजन होने में लाभ तथा न होने में हानि मानता है l इसलिए वह स्वाभाविक ही वही करता है जिससे भजन बनता और बढ़ता है, वह ऐसा कार्य कभी नहीं करता, जिससे भजन नहीं बनता या घट जाता है l
            हम सभी आत्यन्तिक सुख चाहते हैं l  ऐसा सुख चाहते हैं जो अनंत हो, परन्तु मोहवश चाहते वहां से हैं, जहाँ सुख है नहीं l अथवा उससे, जो सुख का बहुत बड़ा स्वांग तो बनाये हुए है; पर है दुःख से पूर्ण l जहर से भरी हुई मिठाई मीठी लगती है निस्संदेह, पर वह मारनेवाली ही होती है l  जहर का ज्ञान न होने से या ज्ञान होने पर भी स्वाद के लोभ से लोग उसे खा लेते हैं l मीठी है तो क्या; उसका घातक प्रभाव तो होगा ही l  भोग-जगत भी ठीक ऐसा ही है l इसीलिए भगवान् ने इन्द्रिय-भोगों को भोगकाल में अमृत के समान और परिणाम में विष के सदृश मारनेवाला बताया है l ' यह जगत सुखरहित है, अनित्य है और वस्त्रालय, विधालय, औषधालय की तरह  'दुःख का आलय' है और 'दुःख योनि' - दुखों की उत्पत्ति का स्थान है l  इस सुखरहित, दुखालय तथा दुखों के क्षेत्र-जगत से सुख-प्राप्ति की आशा करके, केवल आशा ही नहीं, आस्था रखकर, हम उसके लिए रात-दिन प्रयत्नशील रहते हैं l यह हमारा बड़ा भारी मोह है l  यह आशा, यह आस्था, यह कल्पना वैसे ही मिथ्या है, जैसे जहर को मिटाने के लिए जहर का प्रयोग, अन्धकार को निकालने के लिए दीपक का बुझा देना l तेल की आशा से बालू को कितना ही पेरा जाये, बालू काजल-सी महीन होकर उड़ सकती है, पर तेल नहीं मिलेगा l इसीलिए नहीं मिलेगा कि उसमें तेल है ही नहीं l सुखरहित भोग से सुख कि प्राप्ति असम्भव है  l  दुखालय और दुःख योनि जगत से सुख कि आशा ही अज्ञान है - मोहान्धकार है l


मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)                                            

शनिवार, सितंबर 29, 2012

कर्मफल का नियामक ईश्वर

कर्मफल का नियामक ईश्वर



           यों तो 'ब्रह्मवेदम सर्वम'  सब कुछ परमात्मा ही है l  इस सिद्धांत के अनुसार कोई ऐसी वस्तु नहीं , जो ईश्वर से भिन्न हो l सम्पूर्ण जड़-चेतन-प्रपंच - कार्य-कारण, करता - करण, कर्म और उसका फल तथा उस कर्मफल के नियामक - सब कुछ ईश्वर ही बने हुए हैं l सर्वत्र ईश्वर हैं, साधा ईश्वर हैं और सब ईश्वर हैं l फिर भी वे सब से विलक्षण हैं  l   उनका  वैलक्षन्य क्या है - इसका विवेचन आरम्भ होने पर हम ईश्वर की उन्हीं विशेषताओं पर दृष्टि रखेंगे,  जो अन्यत्र नहीं उपलब्ध  होतीं l सामान्यता सृष्टि को दो भागों में विभक्त किया जाता है  - जड़ और चेतन l  जड़ दृश्य है , चेतन दृष्टा l जड़ नियम्य है और चेतन नियामक l  जड़ परतंत्र है और चेतन स्वतन्त्र  l जड़ नाशवान , परिवर्तनशील और अनेक रूप है l चेतन अमर, अपरिणामी और एकरस है  l   इस प्रकार के विश्लेषण को 'दृष्ट - दृश्य - विवेक' कहते हैं l अब आप स्वयं ही देखें - कर्म जड़ कोटि में है या चेतन कोटि में l कर्म का आरम्भ होता है , उसकी समाप्ति होती है ; अत: वह अनित्य है l  ईश्वर अनादि , अनन्त और नित्य है l  फिर कर्म ईश्वर कैसे हो सकता है ? कर्म होने के बाद नष्ट हो जाता है ; अत : वह स्वयं कुछ कर  नहीं सकता , उसका संस्कार शेष रह जाता है अथवा अदृष्ट रूप  से वह शेष रहता है - यों कहें तो भी संस्कार या अदृष्ट भी जड़ ही है l  कौन कर्म कैसा है , किसका कैसा कर्मफल होगा और वह कब मिलेगा - इसका ज्ञान सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर के सिवा किसको रह सकता है l  इसलिए यही मानना ठीक है कि ईश्वर ही कर्मफल का नियामक है l


सुख-शान्ति का मार्ग (३३३), गीताप्रेस गोरखपुर        

शुक्रवार, सितंबर 28, 2012

कुछ महत्वपूर्ण जिज्ञासाओं का समाधान


कुछ महत्वपूर्ण जिज्ञासाओं का समाधान



             किसी वस्तु में श्रद्धा अथवा प्रेम तभी होता है, जब हमें उसकी लोकोत्तर महत्ता का ज्ञान हो l  भगवान् के प्रति श्रद्धा और प्रेम की कमी इसीलिए है कि अभी उनके महत्त्व को हमने पहचाना नहीं l आज का संसार जो 'अर्थ' और 'भोग' के पीछे पागल हो रहा है, इसका क्या कारण है कि उसके लिए अर्थ और भोग ही जीवन में महत्त्व की वस्तुएँ हैं  l  ऐसे लोगों ने अर्थ और भोग को जितना महत्त्व दिया है,  उतना भी महत्त्व भगवान् को नहीं दिया l  हम भगवान्  को पाना चाहते हैं, उनमें  श्रद्धा  और  प्रेम करना चाहते हैं  - ये सब केवल कहने की बात रह गयी है l यदि हम वास्तव में इस बात को जान लें कि भगवान् को पाना ही जीवन का चरम उद्देश्य है, उनसे विलग या विमुख होने के कारण ही हमें नाना प्रकार के दुःख-क्लेश घेरे रहते हैं, एकमात्र भगवान् ही अक्षय सुख के भण्डार हैं, वे ही जीव की चरम और परम गति है, तो हम भगवान् से मिले बिना एक क्षण भी चैन से नहीं बैठ सकते l अनादि-काल से विषय-भोगों में ही रमते रहने के कारण हमारे अंत:करण में उन्हीं के संस्कार जमे हुए हैं; उसमें भगवान् के भजन की बात बैठती ही नहीं l  इसके लिए हमें सत्संग रुपी गंगा की पवित्र  धारा में अवगाहन करना चाहिए l तभी अंत:करण की मलिनता धुल सकेगी l  गीता,  रामायण,  श्रीमद्भागवत  तथा भक्तिप्रधान ग्रन्थों का स्वाध्याय,  भगवन्नाम  जप और नामकीर्तन आदि भी भगवान्  के  प्रति  श्रद्धा और प्रेम बढ़ाने में बड़े सहायक हैं l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३), गीता प्रेस, गोरखपुर      

गुरुवार, सितंबर 27, 2012

भगवान् में सब कुछ है

भगवान् में सब कुछ है


आज से हजारों वर्ष पूर्व महाराज ययाति ने भी ऐसा ही अनुभव प्राप्त किया था l  वे विषयभोग से विषयतृष्णा का दमन करना चाहते थे l  जीवन में यह प्रयोग करके उन्होंने देखा, किन्तु अन्त में उन्हें निराशा ही हाथ लगी l वे इस परिणाम पर पँहुचे  कि विषयों का उपभोग विषयेच्छा रुपी अग्नि को प्रज्वलित करने में घी का काम करता है l  इस अनुभव के बाद वे उधर से हट गए l शेष जीवन उन्होंने भगवान् की आराधना में बिताया, इससे वे परम कल्याण के भागी हुए l आप को भी मैं यही सलाह दूंगा, भगवान् के प्रति आपने मन में आकर्षण पैदा कीजिये l  रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द - ये सभी विषय अनन्त और दिव्याति दिव्यरूप में भगवान् में हैं l  आप-अपने मन से कहिये - वह भगवान् की ओर लगे, उन्हीं का चिन्तन करे l  वहां एक ही जगह उसे सब कुछ मिल जायेगा, उसकी सारी कामनाएं पूर्ण हो जाएँगी l आजकल समय देखते हुए तो यही मार्ग निरापद जान पड़ता है l
          आप चाहते हैं - वीर्य की   ऊधर्वगति हो, आप के लिए मन में ऊधर्वरेता  बनने की साध है l किन्तु आप समय पर चूक गए हैं l योग-साधन का सबसे बड़ा सहारा है -ब्रह्मचर्य - वीर्य का संरक्षण l  किन्तु उसी पर आपने तुषारपात कर दिया है l पता नहीं, आप की अवस्था अब क्या है और आप ने जीवन का कितना समय कामान्धता में बर्बाद किया है l यह जानने पर ही कोई उपयोगी सलाह दी जा सकती थी l  ऊपर जो परामर्श दिया गया है, वह सब के लिए सभी अवस्थाओं में परम मंगलदायक है l  भगवान् गीता में कहते हैं - 'पहले का कितना ही दुराचारी क्यों न हो, जो अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, वह साधू ही मानने योग्य है, क्योंकि उसे उत्तम निश्चय कर लिया है l ' अब उसके राह पर आने में - धर्मात्मा बनने में देर नहीं है l -
                                                     'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा  ll '
 योग-विद्या और कुण्डलिनी-शक्ति को जगाने की विधि मुझे ज्ञात नहीं है, न मैं किसी अनुभवी योगी अथवा प्रामाणिक योग आश्रम का ही पता जानता हूँ l  अत: इस विषय में आप को कोई राय नहीं दे सकता l आप संसार में रहकर निवृतिमय जीवन बिताना चाहते हैं तो भगवान् की शरण ग्रहण कीजिये l यही मंगलमय और निष्कंटक मार्ग है l             


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३),गीता प्रेस, गोरखपुर                       

बुधवार, सितंबर 26, 2012

माता-पिता का अपमान पाप है





अब आगे.........


           माता-पिता के उपकारों से मनुष्य का रोम-रोम दबा हुआ है l  उनके विपरीत आचरण करना भरी कृतज्ञता और विश्वासघात है l कृतघ्न और विश्वासघाती के लिए कोई प्रायश्चित  ही नहीं है l  वह इतना भंयकर पाप है कि प्रायश्चित से शान्त नहीं होता l   इस पाप के प्रतिकार के दो ही उपाय है - अपनी भूलों के लिए सच्चे ह्रदय से पश्चाताप हो और माता-पिता कि ओर  से क्षमा मिल जाये l क्षमा जबरदस्ती नहीं, उन्हें सेवा से प्रसन्न करके प्राप्त की जा सकती है l   जब पुत्र पिता-माता की इतनी सेवा-शुश्रूषा करे कि उससे उनका रोम-रोम उसके लिए आशीर्वाद दे और उनके अन्त:करण में पुत्र के लिए स्वभावत:ही मंगल-कामना होती रहे, तब उस पुत्र का जन्म सार्थक मानना चाहिए l यों तो माता-पिता स्वभाव से ही पुत्र की भलाई चाहते, करते और विचारते हैं; परन्तु पुत्र  तभी उनके ऋण से मुक्त होता है, जब  सेवा और आज्ञापालन से उन्हें निरन्तर संतुष्ट रखे l  शास्त्रों का वचन है - 'पिता के जीते-जी उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करे, उनकी मृत्यु हो जाने पर प्रतिवर्ष मृत्युतिथि पर उनके निमित्त एकोदृष्ट श्राद्ध करके ब्राह्मणों को पूर्णतया भोजन से तृप्त  करे और गया में पिण्डदान दे - इन तीन बातों से पुत्र का 'पुत्र' नाम सार्थक होता है l '
           किसी भी पाप के लिए पश्चाताप की आग में जलना उत्तम प्रायश्चित है l किये पर पछतावा हो, आगे वैसा कर्म न करने का दृढ संकल्प हो और भगवान् से प्रार्थना की जाये, उनकी शरण में जाकर उन्हीं की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म का अनुष्ठान किया जाये तो सभी पाप भस्म हो जाते है l भगवान् के नाम का जप पापों का अमोघ प्रायश्चित है l माता-पिता को गाली देना तो इससे भी बड़ा अपराध है l अत: इसके लिए भी यही उचित है कि अपराध के अनुसार दो-एक दिन उपवास किया जाये, माता-पिता के चरणों पर पड़कर किये हुए अपराध के लिए क्षमा माँगी जाये और भविष्य में फिर ऐसी धृष्टता न करने का दृढ संकल्प लेकर सदा अपनी सेवाओं से माता-पिता को संतुष्ट रखा जाये l  साथ ही भगवन्नाम-जप और भगवत प्रार्थना भी चलती रहे l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)           
गीता प्रेस, गोरखपुर

मंगलवार, सितंबर 25, 2012

माता-पिता का अपमान पाप है






         आज भी ऐसे लोग हैं, जो पिता-माता के महत्व को समझ कर उनके प्रति अपने द्वारा होने वाले अपराधों का प्रायश्चित करना चाहते हैं l  खेद की बात यह है कि अब ऐसा बुरा समय आ गया कि लोग पिता-माता के प्रति भी कटु शब्द कहते संकोच नहीं करते, उन्हें गालियाँ देते समय उनकी वाणी कुण्ठित नहीं होती और उनका अपमान करके भी वे पश्चाताप कि आग में नहीं जलते l
         एक समय वह था, जब पिता कि आज्ञा दूसरे के मुख से सुनकर भी भारतीय युवक बड़े-से-बड़े साम्राज्य को भी लात मार जंगल में निकल जाते थे, माता-पिता को कन्धों पर बिठाकर तीर्थ कराते और उनको भगवान् समझकर नित्य-निरन्तर उनकी सेवा, उनकी आराधना में संलग्न रहते थे l
         शास्त्रों  में माता-पिता को उपाध्याय और आचार्य से भी ऊँचा स्थान  दिया गया है l  भगवान् मनु कहते हैं - 'पिता प्रजापति स्वरूप है तथा माता पृथ्वी की प्रतिमूर्ति है  l मनुष्य कष्ट में पड़ने पर भी कभी इनका अपमान न करे l  माता और पिता पुत्र-जन्म के लिए जो क्लेश उठाते हैं, उसके पालन-पोषण में जो कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला पुत्र सैकड़ों वर्षों तक उनके सेवा करके भी नहीं चुका सकता l  जिसने माता-पिता और आचार्य को प्रसन्न कर लिए, उसकी सम्पूर्ण तपस्या पूरी हो गयी l उनकी सेवा ही सबसे बड़ी तपस्या है l उनकी अनुमति के बिना कितने ही बड़े दूसरे धर्म का अनुष्ठान क्यों न किया जाये , वह सफल नहीं होता l  माता की भक्ति से इस लोक को, पिता की भक्ति से मध्यम लोक को और गुरु की भक्ति से ब्रह्मलोक को मनुष्य जीत लेता है l जिसने इनका आदर किया, उसके द्वारा सब धर्मों का आदर हो गया l जिसने इनको अपमानित किया, उसके समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं l पुत्र के लिए माता-पिता की सेवा ही परम धर्म है l
          इस प्रकार शास्त्रों में माता-पिता की महिमा गायी गई है, उनकी सेवा का महात्मय बताया गया है और उनके तिरस्कार से घोर पाप की प्राप्ति कही गई है l  यह तो हुई शास्त्र की बात, लोकदृष्टि से विचार किया जाये तो मनुष्य के लिए माता-पिता से बढ़कर उपकारी और हितेषी कौन हो सकता है l  उनका अपमान करने पर किस अभागे पुत्र को ग्लानि नहीं होती होगी ?


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)  
गीता प्रेस, गोरखपुर      
              

सोमवार, सितंबर 24, 2012

गुरु किसको करें ?






अब आगे.........


          कुल-परम्परा से यदि घर में श्रीविष्णु की अथवा देवी की पूजा होती चली आ रही तो उसका पालन होना ही चाहिए l  कुल के प्रत्येक व्यक्ति को उस परम्परा की रक्षा में सहयोग करना चाहिए l इस के अतिरिक्त अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार जिन्हें ह्रदय के सिंहासन पर बिठाया है उन श्रीकृष्ण अथवा श्रीराम आदि इष्टदेव की पूजा भी करनी  चाहिए l  उस व्यक्ति के लिए, जिसके श्रीकृष्ण ही इष्टदेव हैं, श्रीकृष्ण की ही पूजा प्रधान है, वह केवल श्रीकृष्ण की प्रतिमा अथवा चित्रपट का पूजन करे l  शालग्राम-शिल्प का भी श्रीकृष्ण भाव से पूजन करने से कोई आपत्ति नहीं है l  श्रीकृष्ण के पार्षदों अथवा अन्तरंग शक्तियों का पूजन भिन्न-भिन्न तन्त्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार से बताया गया है l साधारणतया आप श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधारानी का पूजन कर सकते हैं l
          इष्ट-प्रतिमा या चित्रपट में प्राणप्रतिष्ठा करना उत्तम है, किन्तु उसकी पूजा आदि की व्यवस्था में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होनी चाहिए l  उसका वैदिक विधि से संस्कार होने पर अन्य असंस्कृत व्यक्तियों, स्त्रियों तथा अस्पृश्यों के स्पर्श से उसे बचाना तथा नित्य-नियमपूर्वक उसके पूजन, भोग आदि की सुन्दर व्यवस्था करना आवश्यक है l  यदि इस तरह की व्यवस्था और विधि-निषेध के पालन में अड़चन हो तो वैदिक विधि से प्राणप्रतिष्ठा न करके भावना द्वारा भगवान् को सर्वत्र व्यापक देखते हुए प्रेमपूर्वक उनका पूजन करना चाहिए l
           जहाँ भगवान् में गुरुभावना है, वहां दूसरे किसी गुरु के बिना भी भजन-साधन में कोई भय की बात नहीं है l रुद्राक्ष अथवा तुलसी की माला पर आप जप कर सकते हैं l  माला न हो तो कर-माला पर जप कर सकते हैं l
           गायत्री-मन्त्र का जप करते समय ध्यान आप अपनी रूचि के अनुसार देवी गायत्री, भगवान् सूर्य अथवा इष्टदेव भगवान् का कर सकते हैं l  निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ध्यान भी किया जा सकता है l नाम-जप परत:-सायं के अतरिक्त सर्वदा सब कार्य करते समय भी कर सकते हैं l समष्टि-कीर्तन में आप सब के साथ 'हरे राम ' मन्त्र का उच्च स्वर से उच्चारण कर सकते हैं l यह मन्त्र -प्रकाशन नहीं है l  शेष भगवत्कृपा l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)        

रविवार, सितंबर 23, 2012

गुरु किसको करें ?





 

        ब्राह्मण के लिए यदि ब्राह्मण ही गुरु मिल जाये तो वह सर्वोत्तम है l केवल ब्राह्मण का ही नहीं, समस्त वर्णों का गुरु ब्राह्मण है  -  'वर्णानाम ब्राह्मणो गुरु: l ' किन्तु यदि ब्रह्मनिष्ठ, भगवत्प्राप्त  एवं गुरुचित गुणों से संपन्न ब्राह्मण गुरु न मिल सके तो उक्त गुणों वाले क्षत्रिय अथवा वैश्य से भी श्रद्धापूर्वक परमार्थ पथ का  उपदेश लिया जा सकता है - यह बात शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है l छान्दोग्योपनिषद  में कथा आती है - 'आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु तथा स्वयं आरुणि ने भी पंचालराज प्रवाहण से उपदेश ग्रहण किया था l ' पंचालराज क्षत्रिय थे आरुणि ब्राह्मण l  इसी प्रकार महाभारत में कथा आती है कि एक तपस्वी ब्राह्मण ने किसी पतिव्रता देवी के भजने से व्याध के पास जाकर उपदेश ग्रहण किया था l  एक कथा है - एक ब्राह्मण  ने तुलाधार वैश्य के पास जाकर उपदेश देने के लिए उनसे प्रार्थना की थी  l इतना ही नहीं, उन्हें माता-पिता में भक्ति रखनेवाले एक चाण्डाल के यहाँ भी उपदेश लेने के लिए जाना पड़ा था l  ये सभी अपवाद-स्थल हैं l  तात्पर्य इतना ही है कि वास्तव में गुरु उत्तम वर्ण का होना चाहिए l  अभाव में निम्नवर्ण के योग्य पुरुष कि शरण लेने में भी कोई हानि नहीं है l
          ईश्वर प्राप्ति  अथवा मोक्षमार्ग में प्रवृत करानेवाले गुरु का महत्व सबसे बढ़कर है l  साधन-सम्बन्धी उपदेश उन्हीं से लेना और उसका दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए l  अन्य संत-महात्माओं तथा गुरुजनों से भी सत्संग के तौर पर उत्तम बातें लेने में कोई हर्ज नहीं है l सत्संग से साधन में रूचि बढती है और दृढ़ता आती है l अत: वह प्रत्येक साधक के लिए लाभदायक है l
          कुल परम्परा से यदि  घर में श्री विष्णु की अथवा देवी की पूजा होती चली आ रही हो तो उसका पालन होना ही चाहिए l  कुल के प्रत्येक व्यक्ति को उस परम्परा की रक्षा में सहयोग करना चाहिए l इसके अतिरिक्त अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार जिन्हें ह्रदय के सिंहासन पर बिठाया है, उन श्रीकृष्ण अथवा श्री राम आदि इष्टदेव की पूजा भी करनी चाहिए l

सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)                                  

शनिवार, सितंबर 22, 2012

अवतार रहस्य



 


       जो अवतारवाद को नहीं मानते, वे यह दलील देते हैं कि शरीर धारण करने से ईश्वर एकदेशीय हो जाता है l पर वस्तुत: यह कथन ठीक नहीं है l  एकदेशीय कल्पना जड़ देश में होती है l  भगवान् का स्वरूप चिन्मय है l  वे ज्ञानमय प्रकाश के पुंज हैं l  उनका शरीर, उनके आयुध-आभूषण - सभी दिव्य एवं चिन्मय हैं l  वे साकार होकर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं l  अतएव वे एकदेश में दिखाई देते हुए भी सर्वदेशीय तथा सर्वव्यापी हैं l  यही भगवान् कि विशेषता है कि उनमें सब प्रकार के विरोधी गुणों का तथा भावों का समन्वय होता है l
          यधपि भगवान् के सदृश व्यापक दूसरी कोई वस्तु नहीं, जिसका दृष्टान्त उपस्थित किया जाये, तथापि अवतारवाद को कुछ हदतक  समझने के लिए अग्नि का दृष्टान्त दिया जाता है l अग्नि परमाणु रूप से सर्वत्र व्यापक  है l  काष्ठ आदि सभी वस्तुओं में उसकी सत्ता है l  इस प्रकार निराकार रूप से सर्वत्र व्याप्त अग्नितत्व एक ही है, तो भी वह दियासलाई आदि की सहायता से अनेक स्थानों पर या एक स्थान पर साकाररूप में प्रकट  होता  है l  इस प्रकार एक देश में प्रकट होकर भी वह अन्यत्र नहीं है - यह बात नहीं कही जा सकती l  इसी प्रकार भगवान् भी एकदेश में साकाररूप से प्रकट होकर भी निराकार रूप से अन्यत्र सब स्थानों में विद्यमान हैं l अग्नि की दो शक्तियां  हैं  - दाहिका शक्ति और प्रकाशिका शक्ति l  अग्नि का प्रकाट्य जहाँ कहीं भी होता है, वहां ये दोनों शक्तियां पूर्णरूप से विद्यमान रहती हैं l  इसी प्रकार भगवान् - सर्वव्यापी परमात्मा जहाँ भी प्रकट होते हैं, अपनी सम्पूर्ण शक्ति साथ लेकर ही प्रकट होते हैं l  अत: भगवान् के अवतार-विग्रह में एकदेशीय या अल्पशक्ति होने का दोष नहीं आ सकता  l  जैसे प्रकट अग्नि और अप्रकट अग्नि एक ही है, उसी प्रकार साकार और निराकार एक ही तत्व हैं, इनमें कोई पार्थक्य नहीं है; अतएव साकार विग्रह भी सर्वव्यापी ही है l
        ईश्वर सर्वत्र है, अत: वह अपने लिए ऐसा नियम कभी नहीं बनाता, जिसे कभी तोड़ने की आवश्यकता पड़े l  वह आविर्भाव और तिरोभाव की शक्ति से युक्त है, अत: अवतार-ग्रहण उसके लिए नियमविरुद्ध नहीं है l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)                

शुक्रवार, सितंबर 21, 2012

मैत्री-भावना कीजिये








          आप धर्म के लिए कष्ट सहन कीजिये और भगवान् से कातर प्रार्थना कीजिये l प्रार्थना में बड़ी शक्ति है, उससे मनुष्य का ह्रदय पलट सकता है l  शरीर का अन्त कर देने से तो दुःख मिटेंगे नहीं, वह तो एक नया भयानक अपराध होगा और उसका बड़ा भीषण परिणाम परलोक में भोगना पड़ेगा l यह सत्य है कि चरों ओर से ठुकराए जाने पर मनुष्य का चित्त अत्यन्त विकल हो जाता है और उसे बुराई ही सूझती है; परन्तु ऐसी स्थिति में ही धैर्य कि आवश्यकता है l आप अपने मन से किसी को विरोधी न मानकर अपना कर्मफल मानिए और बार-बार सद्भावना करके उन लोगों के मन के जहर को मारिये l  यदि प्रतिदिन मनुष्य कम-से-कम पाँच मिनट उस व्यक्ति के लिए, जो अपने से विरोध रखता है तथा बुरा बर्ताव करता है, भगवान् से प्रार्थना करे कि 'भगवन ! उसके चित्त से मेरे प्रति जो द्वेष है, उसे आप दूर करके निकाल दीजिये और मेरे मन में कभी उसके प्रति दुर्भाव न आये, मैं उसे अपना विरोधी मानूँ ही नहीं, मुझे उसके  अन्दर आप का मधुर दर्शन हो और उसकी क्रिया में आपका मंगल-विधान दिखाई दे - ऐसी शक्ति दीजिये l मेरा कोई वैरी न हो, सब के प्रति मेरे मन में मित्रभाव हो l '  तो इस प्रकार प्रार्थना और सद्भाव करने पर विरोधी व्यक्तियों का विरोध नष्ट हो जाता है और धीरे-धीरे वे मित्र बनने लगते हैं l अपने मन की विरोध-भावना विरोधियों की संख्या तथा विरोधी भाव बढाती है और अपने मन की मैत्री-भावना मित्रों की संख्या तथा मैत्री-भावना बढाती है l  यह अटल सत्य है, प्रयोग करके देखिये l  आत्महत्या की तो बात ही सोचना पाप है l  धैर्य रखिये, भगवान् के नाम का जप कीजिये और कातर भाव से  विश्वासपूर्वक भगवान् से प्रार्थना कीजिये l शेष भगवत्कृपा  l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)          

गुरुवार, सितंबर 20, 2012

भगवान् का विधान






अब आगे.......
       
         जैसे डाक्टर बहुत-से रोगियों को बेहोश करके उनके घावों को छुरे से चीरता है, उनके सड़े-गले मांस और रक्त को निकालता है, आवश्यकता होने पर हड्डियों तथा किसी अंग तक को काट डालता है, उसी प्रकार भगवान् भी करते हैं l  डाक्टर  के उस ऑपरेशन को एक छोटा बालक निर्दयता का ही काम कह सकता है, किन्तु समझदार  यह जानते हैं कि डाक्टर का सारा प्रयत्न रोगी को जीवनदान देने के ही लिए है l  इसी प्रकार जब जगत में सामूहिक संहार कि लीला देखने में आती है, तब साधारण मनुष्य भगवान् को निष्ठुर, निर्दय तथा और भी न जाने क्या-क्या कहने लगते हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि भगवान् का प्रत्येक कार्य जगत के कल्याण के लिए ही हो रहा है l  उसमें जो कष्ट या दुःख कि प्राप्ति कुछ काल  के लिए होती है वह हमारे अपने ही कर्मों  का , अपथ्य-सेवन से बढ़ाये हुए रोगों या घावों क ही कटु परिणाम है l  भगवान् तो उससे भी छुड़ाने के लिए ही यत्नशील हैं l
         इतना होने पर भी जो मानव स्वयं असुर बनकर दूसरे नर-नारियों का रक्त बहा रहे हैं उन्हें इसका कठोर दण्ड भोगना पड़ेगा l  जो लोग इस अत्याचार के शिकार हो रहे हैं, उनको तो किसी पूर्व कर्म का भोग मिलता है, परन्तु जो धर्म और ईश्वर को  भुलाकर, विवेक और विचार को खोकर तुच्छ स्वार्थ के लिए या काम, क्रोध, द्वेष, वैर और हिंसावृति  के वश में होकर प्राणियों के जीवन को संकट में डाल रहे हैं  l वे गीता कि वाणी में 'असुर-स्वभाव' वाले हैं l  उन्हें भगवान् का कठोर दण्ड अवश्य मिलता है  l



सुख-शान्ति का मार्ग (३३३)    
         

बुधवार, सितंबर 19, 2012

भगवान् का विधान








        इसमें सन्देह नहीं कि संसार में जो कुछ होता है, वह भगवान् कि इच्छा से ही होता है, उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता l साथ ही यह भी सत्य है कि भगवान् परम दयालु हैं, वे सम्पूर्ण जगत का कल्याण ही चाहते हैं l वे कभी ऐसी इच्छा नहीं कर सकते कि जगत में प्राणी कष्ट भोगे, उनकी निर्दयतापूर्वक हत्या होती रहे l
          ये बातें ऊपर से देखने पर परस्पर विरुद्ध-सी प्रतीत होती हैं, किन्तु हैं दोनों ही सत्य l  इस रहस्य को समझना आवश्यक हैं l  भगवान् में स्वत: कोई इच्छा नहीं होती l वे स्वरूपत: पूर्णकाम और कृतकृत्य हैं l  जिसे कुछ पाना या करना शेष हो, वही इच्छा करता है अथवा उसी के मन में इच्छा या कामना का उदय होता है l भगवान् के लिए तो 'नानवाप्तमवाप्तव्यम' है, उन्हें न कोई वस्तु अप्राप्त है और न पाने योग्य है; फिर उनमें इच्छा कैसे रहे, ऐसे इच्छारहित भगवान् में इच्छा पैदा करते हैं हमारे अपने कर्म l हमारे द्वारा जो नाना प्रकार के कर्म होते रहते हैं, उनमें शुभ और अशुभ - सभी तरह की क्रियाएँ होती हैं l सुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुःख है l  जो जैसा कर्म करे, उसे वैसा फल मिले - यह भगवान् का ही बनाया हुआ नियम है l  अशुभ का दण्ड इसलिए है कि हम अशुभ से दूर रहें l  शुभ का पुरस्कार इसलिए है कि हम शुभ कर्म ही करें l  दण्ड देने में भगवान् न तो जीव के प्रति कोई द्वेष है और न पुरस्कार देने में किसी जीव के प्रति उनका राग ही है l वे तो कर्मफलों की व्यवस्था मात्र कर देते हैं l  इसलिए उन्हें निर्दयता और विषमता का दोष नहीं दिया जा सकता l
            जब अधिक जीवों के बुरे प्रारब्ध-कर्म एक साथ फल देने को उन्मुख हो जाते हैं, तब अकाल, महामारी तथा पारस्परिक संघर्ष आदि के द्वारा उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है l  आप कहेंगे, 'इसमें भगवान् की दया कहाँ रही ? वे तो न्यायधीश की भान्ति  फैसलामात्र सुना देते हैं l ' ये भान्ति-भान्ति के कर्म अपने पाश में बंधकर जीव को भगवान् से पृथक किये हुए हैं l  भगवान् उन कर्मों के फल भुगताकर यह चाहते हैं कि जीव इनके बन्धन से छूट जाएँ l 'ये मुझसे पृथक हो अस्वस्थ या अपदस्थ हो गए हैं; पुन: इन्हें अपने स्वास्थ्य अथवा पद की प्राप्ति हो' - यही उन दयामय प्रभु की इच्छा है l

सुख-शान्ति का मार्ग (३३३)                    

मंगलवार, सितंबर 18, 2012

उत्साह रखना चाहिए







     वर्तमान समय और परिस्थिति ऐसी है कि लोगों के विचार और वृतियाँ अधिकांश बुरे मार्ग की ओर खिंच जाती हैं l परन्तु आपने तो बचपन  से ही अपने पिताजी की छत्रछाया में रहकर धार्मिक शिक्षा ग्रहण की है और आपकी रूचि भी सदाचार पालन  की ओर है, इसलिए आप अवश्य ही दृढ़ता पूर्वक बुरे विचारों और वृतियों से बचने का प्रयत्न करेंगे, ऐसी आशा है l आजकल के स्कूल-कालेजों की अवस्था तो और भी भयंकर है l आपके......ने आपको स्कूल से अलग कर लिया, इससे आप उदास न हों l  इसे भगवान् की कृपा समझें और घर पर ही सदाचार और सत्संग सम्बन्धी पुस्तकों का अध्ययन करके अपना ज्ञान बढ़ाएं l  कभी निराश एवं उदास न हों l सर्वदा उत्साह रखें l अपने भोजन, अध्ययन और घर के काम-काज को इतना नियमित और सात्विक बना लें कि उसमें एक क्षण के लिए भी प्रमाद को अवसर न रहे l ऐसा करने से आपका शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का स्वस्थ्य ठीक होने लगेगा l  इन सब बातों के साथ-ही-साथ यदि आप नियमित रूप से भगवान् के नाम का जप और उनके सामने अपने कष्ट का निवेदन शुरू कर दें  तो आपकी अधिकांश विपत्तियाँ स्वयं ही नष्ट हो जाएँगी l आप अभी नौजवान हैं l आपकी रग-रग में उत्साह और स्फूर्ति कि धरा दौड़ती रहनी चाहिए l भगवान् के वरद करकमलों कि छत्रछाया सदा ही हमारे सिर पर है और वे निरन्तर हमारा कल्याण कर रहे हैं - ऐसा दृढ विश्वास रखिये और शोक-मोह छोड़कर निरन्तर  प्रसन्न  रहिये l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
           

सोमवार, सितंबर 17, 2012

आवश्यक साधन


 




    निरन्तर भगवान् का नामस्मरण होता रहे l इस से बढ़कर और क्या करना है l निरन्तर नामस्मरण ही भगवान् का सानिध्य प्राप्त कराने में पूर्ण समर्थ है l पाँच बातों का ख्याल रखिये -
        १- पापकर्म (कम-से-कम शरीर से तो न हो) l
        २- व्यर्थ चर्चा न हो l
        ३- किसी के साथ बुरा बर्ताव न हो  l
        ४- भगवान् के नाम की विशेष चेष्टा रहे l
        ५- भगवत्कृपा पर विश्वास हो l
        आप विष्णु भगवान् की उपासना करते हैं सो बहुत उत्तम है l ध्यान के लिए समय कम मिलता है, जो कुछ कभी मिलता है - वह दूसरे-दूसरे चिन्तन में बीत जाता है, लिखा सो ठीक है l नामस्मरण यदि होता रहे तो वह ध्यान ही है l
        पाप न हो, विषय चिन्तन न हो, आलस्य प्रमाद में समय न बीते, संसार का मोह न हो, एकमात्र भगवद चिन्तन में लगे हुए ही सब काम हो - आपकी यह सभी कामनाएं बहुत ही सराहनीय तथा अत्यंत उत्तम हैं l परन्तु मेरे कुछ लिख देने से ही पूरी हो जाएँगी, ऐसी बात नहीं है l आप इन की आवश्यकता का  पूरा अनुभव करेंगे और भगवत्कृपा पर विश्वास करके अध्यवसाय में लग जायेंगे तब भगवत्कृपा से ही ये पूरी होंगी l  इस के लिए आप श्री भगवान् से प्रार्थना कीजिये l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                

रविवार, सितंबर 16, 2012

विषयकामना की आग







अब आगे..........


          विषयों का कहीं अन्त आता ही नहीं, भला इनसे किसको शान्ति मिली है ? ये तो ज्यों-ज्यों मिलेंगे त्यों-ही-त्यों कामना की आग को भड़काते ही रहेंगे l  ज्वाला और पाप बढ़ेंगे, घटेंगे नहीं l  यह ध्रुव सत्य है l  मनुष्य मोह से ही इनमें शान्ति और शीतलता खोजता है l  आखिर किसी-न-किसी समय भगवत्कृपा से उसको इनसे निराशा होती है; तब वह उज्स शाश्वत, नित्य और सत्य सुख-शान्ति की खोज में लगता है, और तभी उसका जीवन सच्ची साधना की ओर अग्रसर होता है l  दोष और पापों का जन्म तो होता है इस विषय आसक्ति से l  इससे बचना चाहिए, और इसके  बदले में विषय विरागपूर्वक भगवद चरणों  में आसक्ति पैदा करनी चाहिए l वस्तुत: वे  ही बडभागी नहीं हैं l भले ही उनके  पास औरों की अपेक्षा विषय सम्पत्ति कहीं प्रचुर हो l आग जितनी बड़ी होगी, उतनी ही अधिक भयानक होगी, यह याद रखना चाहिए l
            धन में तो एक विशेष प्रकार का नशा होता है तो मनुष्य की विचारशक्ति को प्राय: भ्रमित कर देता है l उसकी बुद्धि चक्कर खा जाती है l इसी से वह अशुभ में शुभ और अकल्याण में कल्याण देखता  है l हाँ यदि संसार के सब कर्म शुद्ध और निष्कामभाव से केवल भगवत्पूजा के लिए ही होते हों तो अवश्य ही वे बाधक नहीं होते l वैसी स्थिति में धन कमाना और विषय सेवन करना भी बुरा नहीं है बल्कि उससे भी लाभ होता है, परन्तु यह होना है कठिन l 'राग-द्वेष न हो, शरीर-मन-इन्द्रियां पूर्णरूप में वश में हों l किसी विषय पर मन-इन्द्रियां न चले, कर्तव्य वश भगवत्सेवा के लिए ही बिना किसी आसक्ति के और द्वेष के निर्दोष विषयों का सेवन हो तो उससे प्रसाद की प्राप्ति होती हैं l ' और प्रसाद से सारे दुखों का नाश हो जाता है l परन्तु संसार में ऐसे कितने विषय सेवी हैं जो इस प्रकार विषयों को भगवान् की पूजा की सामग्री बनाकर केवल भगवत्कृपा के लिए ही उनका अनासक्त भाव से सेवन करते हैं l भगवान् पर विश्वास रखकर साधन में लगे रहिये l  फिर वे आप ही बचा लेंगे l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)   

शनिवार, सितंबर 15, 2012

विषयकामना की आग






         दोष तो मनुष्य में आ ही गए हैं और तब तक उनका पूरा नाश नहीं होता जब तक कि भगवत-साक्षात्कार न हो जाये l  सत्संग, शुद्ध सात्विक वातावरण, भजन आदि से दोष दब जाते हैं, वैसे ही छिप जाते हैं जैसे अच्छे शासक के राज्य में चोर-डाकू; परन्तु वे सहज ही मरते नहीं l  यदि बाहर से कोई सहायक या साथी न मिले और लगातार दबते ही चले जाये तो क्षीण होते-होते अन्त में वे मरण तुल्य हो जाते हैं, सिर उठाने लायक नहीं रहते और फिर भगवत साक्षात्कार होते ही सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, फिर उनकी जड़ ही नहीं रह जाती l परन्तु जब तक ऐसा नहीं होता तब तक उनसे सावधान ही रहना चाहिए l इसका उपाय यही है कि सदा-सर्वदा शुद्ध वातावरण  में रहे, सत्संग का पहरा रखें और भजन के द्वारा उन्हें दबाता चला जाये l ऐसा न होने से, द्वार खुला रखने  और पहरा न बैठाने से अर्थात विषयमोहपूर्ण वातावरण में रहने और सत्संग न करने से बाहर के दोष आते रहते हैं जिनसे अन्दरवालों को बल मिलता रहता है l ऐसे ही नए दोषों के आते रहने से पुराने उभर पड़ते हैं, बलवान हो जाते हैं और नयों को भी बलवान बना देते हैं l  इसलिए जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे बड़ी सावधानी के साथ नए दोषों को समीप आने न देना चाहिए और सदा जाग्रत रहकर पुरानों को मारने का प्रयत्न करते रहना चाहिए l  जरा-सी ढिलाई पते ही मौका मिलते ही इर्द-गिर्द में छिपे हुए नए दोष आकर पुरानों को प्रबल कर देंगे और जगत में मनुष्य-जीवन के लिए इससे बढ़कर और कोई हानि नहीं है l संसार का बड़े-से-बड़ा ऐश्वर्य प्राप्त होने पर भी यदि ये दोष रह जाते हैं और मनुष्य भगवान् कि ओर नहीं लग पाता तो उसका जीवन व्यर्थ ही नहीं, भावी दुःख के कारण रूप पाप बटोरने का साधन हो जाता है l वह यहाँ और वहां कहीं  भी शान्ति नहीं पा सकता, मोहवश किसी-किसी समय शान्ति मान बैठता है l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)              

शुक्रवार, सितंबर 14, 2012

भगवत्प्रेम की अभिलाषा





 



आप के अन्दर जब तक दोष है, तब तक अपने को कभी उत्तम नहीं समझना चाहिए l सारे दोषों का मिट जाना मालूम होने पर भी दोषों की खोज करनी चाहिए, तथा जरा-सा भी दोष शूल की तरह हृदय  में चुभना चाहिए l  जब तक किंचितमात्र भी दूषित भाव हृदय में रहे, तब तक सूरदास जी की भांति अपने को महान पातकी ही मानकर प्रभु के सामने रोना चाहिए l मनुष्य शायद न सुने, किसी की भाषा का मर्म न समझ सके,  परन्तु भगवान् में ये सब बातें कोई-सी नहीं हैं l वह सुनते हैं, सबके हृदय  की भाषा का रहस्य समझते हैं, लापरवाही भी नहीं करते और सर्व प्रकार दोष-दुःख दूर करने के उनमें पूर्ण सामर्थ्य भी है, इसलिए मनुष्य को अपने दोष-दुखों का नाश करने के लिए प्रभु से ही प्रार्थना करनी चाहिए l प्रभु अन्तर्यामी हैं, परन्तु प्रार्थना किये बिना,उनके द्वारा सदा किया जानेवाला उपकार हम पर प्रकट नहीं होता  l  इसमें कोई सन्देह नहीं कि चींटी के चाल के बदले में भगवान् इच्छागति गरुड़ की चाल से ही आते हैं, परन्तु चींटी की भी चाल से उनकी ओर चाल पड़ना तो हमारा ही कार्य है l उनकी तरफ अपनी ही चाल से चलना शुरू कर दें, फिर भगवान् अपनी चाल से चलकर उसके पास बात-की-बात में पहुँच जायेंगे l हमारी मन्द गति के बदले में वे अपनी तेज चाल नहीं छोड़ेंगे l परन्तु उनकी ओर चलना, उन्हें चाहना होगा पहले  हमें l भगवान् में अनन्य प्रेम की भिक्षा अनन्य प्रेमी भगवान् से ही माँगनी चाहिए l  यदि अभिलाषा सच्ची होगी तो अनन्य प्रेम अवश्य मिलेगा l अनन्य प्रेम की आपको अभिलाषा है, यह बड़े ही सौभाग्य और आनन्द की बात है l  भगवान् में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होने की अभिलाषा से बढ़कर कोई सौभाग्य भरी उत्तम अभिलाषा नहीं है l यह सर्वोच्च अभिलाषा है जो मोक्ष तक की अभिलाषा को लात मार देने के बाद उत्पन्न होती है l  भगवत्प्रेम पंचम पुरुषार्थ है, जो मोक्ष की इच्छा के भी त्याग से होता है और जिसके परे श्री भगवान् के सिवा और कुछ भी नहीं है l विशुद्ध और अनन्य प्रेम की महत्ता कौन कहे, यह प्रेम प्रेमार्नव भगवान् से ही मिलता है l   दूसरे किस में शक्ति है, जो इस का व्यापार करे l



लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)          

गुरुवार, सितंबर 13, 2012

महापुरुष और महात्मा





अब आगे............
     

        आप के मन में भगवद्भजन के फलस्वरूप कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है, आप भजन के लिए ही भजन करना चाहते हैं यह बहुत ही ऊँची बात है l   बदला पाने की इच्छा ही निर्बलता,  शिथिलता और व्यभिचार की उत्पत्ति करती  है l  भजन यदि भजन बढ़ने के लिए ही  -  भजन उत्तरोत्तर विशुद्ध और अनन्य होने के लिए ही किया जाये तो वैसा भजन बहुत ही ऊँची चीज़ होती है l  वैसे भजन के सामने मुक्ति भी तुच्छ समझी जाती है l  परन्तु ऐसे भजन भी भगवत्कृपा के बल से ही होता है l  भजन में कहीं अहंकार न आने पावे l  अहंकार से बड़ी बाधा उत्पन्न होती है l  भजन तो आसक्ति होनी चाहिए l
         आप भजन से उकताते नहीं हैं यह बड़ी अच्छी बात है l उकताता वही है जो जल्दी ही किसी फल की इच्छा से भजन करता है या जिसके भजन में श्रद्धा और अनुराग का आभाव होता है l  श्रद्धा और अनुराग के साथ निष्काम भजन करनेवाला क्यों उबने लगा l
         बस, करते जाइये;  कभी थकिये मत, परन्तु किसी बात की अपेक्षा न रखिये l  प्रतीक्षा करनी ही हो तो कीजिये एकमात्र भगवत्कृपा की l विश्वास कीजिये - भगवत्कृपा तो आप पर पूर्ण और अनन्त है ही , वह तो सभी पर है, आप जितना-जितना उसका अनुभव कर पाते हैं, उतना-उतना ही आप के भजन बढ़ता है l और जितना -जितना विशेष अनुभव करेंगे, उतनी-उतनी ही आपकी निर्भरता, निर्भयता और भजनशीलता बढती चली जाएगी l साधन में अपनी त्रुटि न हो और फल की कोई भी शर्त न रहे, तो साधना सच्चा परमार्थ है l  भगवान् की सहज कृपा का प्रवाह हमारी ओर निरन्तर आ रहा है l  हम बीच में अपनी शर्तें रखकर उस प्रवाह की स्वाभाविक कल्याणमयी गति में बाधक बन जाते हैं l वह जैसे आता है उसे वैसे ही आने दिया जाये l सब उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए l उन कृपामय का ही चिन्तन अनवरत करना चाहिए l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३) 

बुधवार, सितंबर 12, 2012

महापुरुष और महात्मा






           'महापुरुष' और 'महात्मा' शब्द आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं l मेरी समझ में ऐसा आता है कि शाक्तिसम्पन्न सच्चे महापुरुष या महात्मा का एक बार का दर्शनमात्र ही मनुष्य के कल्याण के लिए पर्याप्त  होता है l  मैं तो ऐसे महापुरुषों की चरणरज को बार-बार नमस्कार करता हूँ और समझता हूँ कि उनकी चरण-रज का प्रसाद-कण मुझे मिला करे तो मैं धन्य हो जाऊं l
            मनुष्य इस से अधिक और कुछ कर भी नहीं सकता l  वह जी न चुराकर लगन के साथ जितना बन सके उतना किये जाये, तो शेष सब भगवान् आप ही कर-करा लेते हैं, परन्तु इतना याद रहे कि साधन या पुरुषार्थ के बल पर भरोसा न रखे l भरोसा रखना चाहिए भगवान् की अनन्त कृपा पर  ही l  किसी भी साधन के  मूल्य पर भगवान् या भगवत्प्रेम नहीं ख़रीदा जाता l  भगवान् या भगवत्प्रेम अमूल्य निधि है, उसकी कीमत कोई चुका ही नहीं सकता l भगवान् जब मिलते हैं, जब अपना प्रेम  देते हैं - तब केवल कृपा से ही l वे देखते हैं, 'पानेवाले की इच्छा को और उसकी लगन को' l  यदि उसकी इच्छा सच्ची और अनन्य होती है, और यदि वह अपनी शक्ति भर तत्परता के साथ लगा रहता है तो भगवान् अपनी कृपा के बल से उसके सारे विघ्नों का नाश करके बड़े प्यार से उसको अपनी देख-रेख में रख लेते हैं और स्वयं अपने निज-स्वरुप से उसके योगक्षेम का वहन करते हैं l
             कृत्रिमता या धोखा नहीं होना चाहिए, और अपनी शक्ति भर कमी नहीं होनी चाहिए फिर चाहे साधन हो बहुत थोड़ा ही, वही भगवत प्रसाद  की प्राप्ति के लिए काफी होता है l और भगवतप्रसाद उसकी कमी को आप ही पूर्ण कर लेता है l साधन पर तो जोर इस लिए दिया जाता है कि मनुष्य भूल से कहीं आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यता को हो निर्भरता न मान बेठे, कहीं तमोगुण को ही गुणातीतावस्था न समझ ले l जो यथार्थ में भगवान् पर निर्भर करते हैं उनके लिए किसी भी साधन का कोई मूल्य नहीं है, उनके तो सारे कार्य भगवतप्रसाद से ही होते हैं, और वह ऐसे विलक्षण होते हैं कि किसी भी साधन से वैसे होने की सम्भावना  नहीं है l कहाँ भगवत्कृपा और कहाँ मनुष्यकृत तुच्छ साधन l

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)

मंगलवार, सितंबर 11, 2012

भक्त के सच्चे ह्रदय की पुकार भगवान् अवश्य सुनते हैं








          भगवान् पर भरोसा तो अच्छी, बुरी सभी स्थितियों में रखना चाहिए l  इसके सिवा और सहारा ही क्या है  ?  बलवान और निर्बल सभी के बल एक भगवान् ही हैं, परन्तु अपने को वास्तव में निर्बल मानकर भगवान् के बल पर भरोसा रखने वाले का बल तो भगवान् हैं ही l इस भगवान् के बल को पाकर वह अति निर्बल भी महान बलवान हो सकता है l     
          भगवान् को पुकारने भर की देरी है l बीमार बच्चा बाहर बैठी हुई माँ को पुकारे तो क्या माँ उस की पुकार नहीं सुनती या कातर पुकार सुनकर भी आने में कभी देर करती है ? अवश्य ही यह बात होनी चाहिए कि माँ बाहर मौजूद हो और बच्चे कि सच्ची कातर पुकार हो l  माँ मौजूद नहीं होगी तो बिना सुने कैसे आएगी और बच्चे की पुकार केवल बनावटी और विनोदभरी  होगी तो  माँ सुनकर भी अपनी आवश्यकता न समझकर नहीं आएगी l परन्तु कातर पुकार सुनने पर तो माँ से रहा ही नहीं जायेगा  l  जब माँ की यह बात है, तब साडी माताओं का एकत्र केन्द्रीभूत स्नेह जिस भगवान् के स्नेह्सागर की एक बूँद भी नहीं है, वह भगवान् रुपी माँ दुखी जीव-संतान की कातर पुकार सुनकर कैसे रह सकेगी l जीव  एक तो उसे अपने पास मौजूद मानता ही नहीं, दूसरे उसकी पुकार बनावटी और लोक-दिखाऊ होती है l  यदि जीव यह माने की भगवान् यहाँ मौजूद है और वे बड़े दयालु हैं तथा यों मानकर उन्हें कातर स्वर से पुकारे तो फिर उनके आने में देर नहीं होती  l द्रौपदी की पुकार पर चीर बढ़ाना और द्वारिका से तुरंत वनमें पहुँचकर पाण्डवों को दुर्वासा के शाप से बचाना प्रसिद्ध ही है  l 
          नियमों का पालन प्रेम और अति दृढ़ता के साथ करते रहें l कृपा तो भगवान् की है ही l  उस कृपा का अनुभव करते ही मनुष्य भगवद्भिमुखी हो सकता है l सदा प्रसन्न रहिये और भगवान् की कृपा का दृढ भरोसा रखिये l  भगवान् को नित्य अपने साथ मानिये, फिर पाप-ताप समीप भी नहीं आ सकते l  निराश तो जरा भी न होइए  l  भगवान् के बल का भरोसा  करने पर निराशा कैसी ?


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                

सोमवार, सितंबर 10, 2012

भगवान् का महत्व



 
    

           भगवान् की ओर चित्त का प्रवाह कम है और सांसारिक विषयों एवं प्रलोभनों की ओर अधिक  है -  यह अवश्य ही चिन्ता की बात है l श्री भगवान् में जिस दिन पूर्ण रूप से यह भाव हो जायेगा कि भगवान् को भूलने से बढ़ कर और कोई महान हानि नहीं है, उस दिन से फिर ऐसी बात नहीं होगी l  किसी भी अधिक मूल्यवान और अधिक महत्त्व की वस्तु के लिए कम मूल्य की या कम महत्त्व की वस्तु का त्याग अनायास हो सकता है l भगवान् के समान  बहुमूल्य और महत्त्व की वस्तु और कौन-सी होगी  l बुद्धि से सोचने पर ऐसा ही प्रतीत होता है, परन्तु इस तत्व पर पूरी श्रद्धा नहीं होती, इसीसे भगवान् को छोड़कर विषयों की ओर चित्तवृतियों का प्रवाह होता है l श्री भगवान् का महत्व यथार्थत:जान लेने पर अपना सब कुछ देकर भी उन्हें पाने में उनकी कृपा ही कारण  दिखाई देती है l  त्याग या तप की कीमत देकर कौन भगवान् को खरीद सकता है l उस अमूल्य निधि की तुलना किसी दूसरी वस्तु से की ही नहीं जा सकती l  फिर तुच्छ भोगों  का त्याग तो तुच्छ-सी बात होगी l भला विचार तो कीजिये - उनके समान सौंदर्य, माधुर्य, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, श्री, यश और किस में है l उनमे समान प्रलोभन की वस्तु और कौन-सी है ? हमारा अभाग्य है जो हम उस दिव्य सुधासागर को छोड़कर विषय-विष की ज्वाला से पूर्ण माया-मधुर विषयों के पीछे पागल हो रहे हैं l भगवान् हमारी मति पलटें l  कातर प्रार्थना कीजिये l सच्ची कातर प्रार्थना का उत्तर बहुत शीघ्र मिलता है l
            एक बात और है बड़े महत्त्व की, हो सके तो कीजिये l जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, क्या, क्यों और कब की चिन्ता को छोड़कर दयामय की अहैतुकी दया पर निर्भर हो जाइये l  बस, उसका चिन्तन हुआ करे और इस निर्भरता में कभी त्रुटि न आने पावे l  देखिये, आप क्या से क्या हो जाते हैं और वह भी बहुत ही शीघ्र l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)            

रविवार, सितंबर 09, 2012

गुरु, साधु, महापुरुष






अब आगे.............
           
             भगवान् के विधान से जो कुछ भी मिल जाये, जो उसी में सन्तुष्ट है. सब अवस्थाओं में समान चित्त वाला है, इन्द्रियों को वश में किये है, श्री हरि के चरणकमलों का आश्रय लिए हुए है, ज्ञानवान है, संसार में किसी की निन्दा नहीं करता  वह साधु है l  जो किसीसे वैर नहीं रखता, दयावान है, शान्त है,  दम्भ और अहंकार से सर्वथा रहित है, किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता, भगवान् के मनन में लगा रहता है, विषयों का चिन्तन नहीं करता, परम वैराग्यवान है वही साधु कहा जाता है l  जो लोभ, मोह, मद, क्रोध और काम से रहित है, सदा आनन्द में डूबा रहता है, भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की शरण है, सहनशील तथा सब में समदर्शी है, वही साधु है l जो अपने प्राण, शरीर और बुद्धि को श्रीकृष्ण के अर्पण कर चुका है, जिसको स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति और इन्द्रियसुखविषयक  वासना शान्त हो गयी है , जिसका चित्त आसक्तिरहित है, जिसका श्रवण-कीर्तन आदि में प्रेम है और जो निरन्तर श्री हरि का ही हो रहा है,  इस लोक में वही साधु है l  जिसके केवल श्रीकृष्ण का ही आश्रय है, जो श्रीकृष्ण प्रेम में ही आसक्त है, 'कृष्ण'  इस इष्ट मन्त्र के स्मरण के  कारण जो सबका पूजनीय है,  श्रीकृष्ण के ध्यान में ही जिसका मन निरन्तर लगा हुआ है,  जो श्रीकृष्ण का ही अनन्य भक्त है, हे मुनिवर्य ! वही कृष्णभक्त साधु है l
              साधु संगति की महिमा से शास्त्र भरे हैं और यह युक्तिसंगत  भी है कि मनुष्य जिस प्रकार की संगति में रहता है, वह उसी प्रकार बनता है l सत्संग से अन्त:करण की शुद्धि, मोक्ष की योग्यता तथा सबसे दुर्लभ भगवत्प्रेम तक की प्राप्ति होती है l वे मनुष्य बड़े भाग्यवान हैं जो कुसंगति से बचे हैं और सत्संगति से लाभ उठाते हैं l  अन्त:करण की शुद्धि के दो अंग हैं - १- पाप तथा  पापविचारों का नाश  और  २- सद्विचार, सद्गुण तथा  सत्कर्मों की प्राप्ति  l ये दोनों ही कार्य सत्संगति से सहज ही होते हैं l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)  
               

शनिवार, सितंबर 08, 2012

गुरु, साधु, महापुरुष





अब आगे.............
           
              यद्यपि बाहरी खान-पान, वेष-भूषा, बातचीत से सच्चे साधु की पहचान नहीं होती तथापि सर्वसाधारण के लिए हितकर वे ही महात्मा हो सकते हैं, जिनके बाहरी आचरण भी आदर्श, अनुकरण के योग्य और परम हितकर हों l
              बड़े रईसों की तरह बहुत आराम से रहने वाले, शरीर को खूब धो-पोंछकर तथा सजाकर रखनेवाले, सर्दी-गर्मी को न सह सकनेवाले, मान-बड़ाई को स्वीकार करनेवाले तथा खान-पान की वस्तुओं में आसक्त-से दीखनेवाले पुरुष, भगवत्प्राप्त महात्मा हो ही नहीं सकते, यह तो कदापि नहीं मानना चाहिए l परन्तु शोभा और आदर्श तो त्याग में ही है l तथा उपर्युक्त बातें जिनमें आसक्ति सहित होती हैं, वे वास्तव में भगवत्प्राप्त पुरुष होते भी नहीं l यह सत्य है कि बाहरी त्याग दिखानेवाले ढोंगी भी हो सकते हैं, परन्तु ऐसा कोई भी व्यभिचार आदि-जैसा बुरा आचरण तो नहीं ही होना चाहिए जो शास्त्र से निषिद्ध हो l
               महापुरुष कि पहचान कोई क्या करे l हमारी बुद्धि का मापदण्ड ही ऐसा है जो उन लोगों की स्थिति को तौल सके l परन्तु यह निश्चय समझना चाहिए कि सच्चे महापुरुष किसी भी हेतु से जान-अनजान में जिसको मिल गए उसका जीवन अवश्य सफल हो गया l भगवान् के साधन-राज्य में दो ही वस्तुएं ऐसी हैं  जो बिना भाव के केवल अपने स्वाभाविक गुण से ही मनुष्य का परम कल्याण कर देती है - १- महापुरुष का संग और २- श्री भगवन्नाम का उच्चारण l  जैसे अग्नि कि दाहिका शक्ति अनजान में स्पर्श हो जानेपर भी अपना काम करती है,  इसी प्रकार महापुरुष का अज्ञात संग भी तमाम पापों को जलाकर परम कल्याण  की प्राप्ति  करा देता है l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                    

शुक्रवार, सितंबर 07, 2012

गुरु, साधु, महापुरुष







अब आगे...........
         
             अवश्य ही भगवान् को गुरु बनाया जा सकता है l भगवान् शंकर 'सद्गुरु' और भगवान् श्रीकृष्ण 'जगद्गुरु' के नाम से प्रसिद्ध ही हैं l वरं भगवान् को गुरु वरण करना और भी उत्तम  है l सच्ची निष्ठां होगी तो भगवान् गुरुरूप से अंतरात्मा से ऐसी शुभ और यथार्थ प्रेरणा करते रहेंगे तथा इस प्रकार  कुशलता के साथ आपको साधन क्षेत्र में आगे बढ़ाते रहेंगे कि उसकी तुलना कहीं भी नहीं मिल सकेगी l
             मेरी समझ से स्त्रियों के लिए किसी मनुष्य विशेष को गुरु करने के आवश्यकता नहीं है l  वे अपने पति को या सबसे परमपति श्रीभगवान को भी गुरु रूप में मानकर उनके आदेशानुसार चलें, इसी में कल्याण है l परपुरुष के चरणस्पर्श और उनका ध्यान करना उचित नहीं है और इसका प्राय: उत्तम फल भी नहीं होता l
             गुरु में ईश्वर से बढ़कर श्रद्धा भक्ति होनी चाहिए यह सत्य है, ऐसा ही होना चाहिए, परन्तु वे गुरु भी वैसे त्यागी, अनुभवी महात्मा ही होने चाहिए जिनका संग और उपदेश शिष्य के परम कल्याण में प्रधान कारण हो l केवल मन्त्र देकर पैसे लेने वाले, स्त्रियों कि ओर बुरी नज़र से ताक्नेवाले, विलासिता तथा भोगसुखों में रचे-पचे हुए नाम के गुरुओं के लिए यह बात नहीं l
             गुरु या आचार्य के लक्षण बतलाते हुए शास्त्रों के कहा गया है  - 'आचार्य वेद के ज्ञाता, भगवान् के भक्त, मत्सर रहित , मन्त्र  का मर्म जानने वाले, मन्त्र के भक्त, मन्त्राश्रयी, शरीर और मन से पवित्र, उत्तम सम्प्रदाय युक्त, ब्रह्मविद्या में पारंगत, अनन्य साधनायुक्त, भगवान् के अतिरिक्त दूसरे कोई भी प्रयोजन को न रखने वाले, साधनसम्पन्न, वैराग्यवान, क्रोध-लोभ से सर्वथा रहित, सदवृतियों में स्थित सदुपदेशक, स्थिरबुद्धि और परमात्मा को (तत्वत:) जाननेवाले होते हैं l जिनमें ऐसे गुण हों वही आचार्य कहलाते हैं l  वस्तुत: जो आचार का उपदेश करते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं  l '


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                

गुरुवार, सितंबर 06, 2012

गुरु, साधु, महापुरुष






          जो साधु, गुरु या आचार्य किसी भी हेतु को बतलाकर परस्त्रियों के साथ दूषित सम्बन्ध रखते हैं, में तो उनको साधु, गुरु या आचार्य कहलाने लायक नहीं समझता l शिष्य अपनी श्रद्धा से गुरु का सब कुछ क्षम्य मान सकता है, यह किसी अंश में किसी सीमा तक  उसके लिए ठीक कहा जाने पर भी न्यायकर्ता ईश्वर के यहाँ उसका सब कुछ क्षम्य नहीं हो सकता l वरं उस पर तो अधिक जिम्मेवारी है l पुलिस की चपरास लगाकर चोरी करनेवाला पुलिस का  कर्मचारी अधिक दण्ड का पात्र होता है, इसी प्रकार दूसरे लोगों को परमार्थ के मार्ग पर ले जाने के लिए जिन लोगों ने गुरु या आचार्य का पद स्वीकार किया है, या जो शुद्ध सात्विक मार्ग पर चलने वाले सर्वत्यागी सन्त का बाना धारण करके साधु बने हैं, वे तो असाधुता का आचरण करने पर विशेष दण्ड के पात्र होते हैं l  मन्दिर, मठ, आश्रम कोई भी स्थान हो तथा उनमें रहनेवाले पुरुष चाहे कैसे भी प्रसिद्ध साधु, महात्मा या गुरु अथवा आचार्य कहलाते हों, यदि वे व्यभिचारी हैं, परस्वका हरण करनेवाले हैं तो उसका संग तो नि:संदेह छोड़ ही देना चाहिए, बल्कि ऐसे प्रयत्न करना भी धर्मसंगत ही है कि जिसमें उनके जाल में भोले-भाले नर-नारी न फंसें, वस्तुत: वे साधु-महात्मा या गुरु-आचार्य नहीं हैं, वे तो सन्त के वेष में कालनेमि हैं जो दण्ड के ही पात्र हैं l वास्तव में ऐसे ही लोगों के कारण धर्म से लोगों की श्रद्धा उठी जा रही है l
            जब सभी क्षेत्रों में अनुभवी और जानकार पुरुषों की सहायता आवश्यक है तब पारमार्थिक क्षेत्र में अनुभवी गुरु की आवश्यकता क्यों न होगी ? गुरु की अत्यंत आवश्यकता है; परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि चाहे जिससे और चाहे जो मन्त्र ले लिया जाये l अनुभवी परमार्थ तत्व के ज्ञाता, त्यागी, शिष्य के कल्याणकारी गुरु की आवश्यकता है l ऐसे गुरु न मिलें तो खोज करनी चाहिए l गुरु प्राप्ति की चाह प्रबल होगी और इसके लिए भगवान् से प्रार्थना की जाएगी तो भगवान् स्वयं ऐसे गुरु से आपकी भेंट करा देंगे या वे स्वयं ही गुरु रूप में आप के सामने प्रकट होकर आपके जीवन को सफल कर देंगे l


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)  

बुधवार, सितंबर 05, 2012

आध्यात्मिक विचार





          मुक्त होने पर जीव परमात्मा में इस प्रकार लीन नहीं होता, जैसे घड़े का पानी समुद्र के जल में, क्योंकि जल की तरह जीव और परमात्मा सावयव पदार्थ नहीं है l वे तो वास्तव में एक ही हैं l  अब विचार यह है कि 'परमात्मा के अवतार लेने पर परमात्मा में लीन हुए मुक्त जीव को भी संसार-बन्धन होता है या नहीं ? ऐसे स्थिति में यदि अवतार लेने पर परमात्मा को ससार-बन्धन माना जाये तब तो किसी प्रकार ऐसी शंका हो भी सकती है l  क्योंकि जीवात्मा परमात्मा में लीन नहीं होता l किन्तु जब परमात्मा को ही बन्धन नहीं होता तो मुक्तात्मा को क्यों होगा ? परमात्मा जो 'शरीर' धारण करते हैं वह उनका स्वेच्छामय दिव्य निर्गुण देह होता है  - प्रकृति का कार्य नहीं होता l उसमें और स्वयं चिदरूप श्रीभगवान में कोई तात्विक भेद नहीं होता l यही सामान्य जीव और परमात्मा के देह धारण में अंतर है l इस प्रकार जब भगवद्विग्रह स्वयं भगवतत्व ही हैं तो वह उनका किस प्रकार बन्धन कर सकता है ? अत: अवतारशरीर के विषय में आपकी यह शंका बन ही नहीं सकती l
            'जड़' शब्द का अर्थ है दृश्य l  जो कुछ भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियों का विषय होता है वह दृश्य ही है और इसी से जड़ भी है l चेतन से जड़ की उत्पत्ति नहीं हो सकती l इसी से चेतन को कारण मानने वाले अद्वैत वेदान्ती दृश्य की सत्ता स्वीकार नहीं करते l  अत: इस शंका से उनके सिद्धांत में कोई बाधा नहीं आती l यदि दृश्य की उत्पत्ति की कोई व्यवस्था ही लगानी हो तो जैसे निद्रा-दोष से स्वप्नद्रष्टा ही स्वप्नरूप होकर नदी, पर्वत, पशु, पक्षी और मनुष्य आदि के रूप में दिखाई देने लगता है, वैसे ही अज्ञानवश शुद्ध चेतन ही जड़-प्रपंच के रूप में भासने लगता है - यही समझना चाहिए l

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)              

मंगलवार, सितंबर 04, 2012

गीता सम्बन्धी विचार





               यहाँ 'जानने' का अर्थ अपरोक्ष रूप से जानना अथवा अनुभव है l केवल शब्दज्ञान का नाम  ज्ञान नहीं है l किसी शहर को नक़्शे में देख लेने से उनकी स्थिति का ज्ञान तो हो जाता है, पर क्या इसीसे  कोई कह सकता है कि मुझे उन नगरों के ठीक-ठीक ज्ञान हो गया ? उनका ठीक ज्ञान तो वहां रहने वालों को ही होता है l इसी प्रकार जिनकी बुद्धि कि वृति प्रकृति  के तीनों गुणों से ऊपर उठ गयी है, उन्हीं को पुरुष का वास्तव ज्ञान हो सकता है और वही ठीक-ठीक प्रकृति के त्रिगुणमय रूप को समझ सकता है l   जो स्वयं तीनों  गुणों से बंधा हुआ है वह त्रिगुणातीत पुरुष को तो क्या, गुणों के रूप को भी ठीक नहीं जान सकता l इसलिए शब्दों को नहीं, शब्द जिनका प्रतिपादन करते हैं, उन पुरुष और प्रकृति रूप अर्थों को जानने से ही पुरुष ज्ञानी कहा जा सकता है l
                 प्रकृति तो जड़ है, अत: वह तो किसी के अनुकूल या प्रतिकूल क्या होगी l इसलिए यहाँ प्रकृति का भावार्थ 'भगवदिच्छा' या 'प्रारब्ध' समझना चाहिए l  हम जो कर्म करते हैं उसी का प्रारब्ध बनता है, इस समय जो प्रारब्ध बना हुआ है वह भी पहले किसी किये हुए कर्म का ही परिणाम है l वास्तव में मानव-जीवन विभिन्न कर्मों के संघर्ष का स्थान है l यदि हमारा वर्तमान पुरुषार्थ प्रबल होता है तो लवः फल्दानो उन्मुख प्रारब्ध को दबा देता है और यदि पुरुषार्थ शिथिल होता है तो प्रारब्ध उसे दबा देता है l रही परम स्वतन्त्र भगवदिच्छा - सो उसकी तो बात दूसरी है l असल में तो भगवान् कि इच्छा का स्वरुप भगवान् ही बता सकते हैं l हम तो यह भी ठीक नहीं बता सकते कि भगवान् में इच्छा है भी या नहीं - परन्तु यदि इच्छा है तो यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि वह भी भक्ति के परतन्त्र है l इसके सिवा अन्य पुरुषों के प्रति भी भगवान्  कि इच्छा उसके कर्मों के अनुरूप ही होती है l अत: यही मानना उठित है कि अपना प्रबल प्रयत्न हो तो अवश्य भगवदिच्छा में भी परिवर्तन हो सकता है l

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सोमवार, सितंबर 03, 2012

भगवद्दर्शन सम्बन्धी विचार


 




          आपको जो दर्शन हुए हैं वे दूसरे प्रकार के अर्थात भावनाजन्य नहीं थे; बल्कि स्वयं श्रीहरि ने ही आपके भक्तिभाव को बढ़ाने के लिए कृपालु होकर दर्शन दिए हैं l ऐसा हो तो बड़ी प्रसन्नता की बात है l फिर तो आप में स्वभावत:ही दैवी सम्पत्ति आ जानी चाहिए थी l भला, भगवान् स्वयं जीव का उद्धार करना चाहे और उसमें विलम्ब हो  - यह कैसे सम्भव है ? अबोध बालक ध्रुव को जब प्रभु ने दर्शन दिए तो इच्छा होने पर भी अपनी अल्पज्ञता के कारण वे उनकी स्तुति न कर सके l प्रभु उनका भाव समझ गए  l उन्होंने ध्रुव के कपोल से अपने वेदमय शंख का स्पर्श कराया और तत्काल ही ध्रुव पूर्ण बोधवान होकर भगवान् की स्तुति करने लगे l
             आपकी कोई भावना तो थी नहीं, इसलिए ध्यानजनित दर्शन तो ये हो नहीं सकते l मेरी समझ में ये साक्षात् दर्शन भी नहीं थे; भगवान् को साकाररूप से भजा जाये अथवा निराकाररूप से - इसमें कोई खास अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों  ही तो एक ही भगवान् के स्वरुप हैं और दोनों ही का समान महत्व है l जब इस प्रकार आपको सगुन निष्ठां शिथिल सिद्ध हो जाती है तो इसमें भी कोई कारण नहीं है कि उसके बाद आपकी जो निर्गुण निष्ठां हुई, वह पुष्ट ही थी l वह पुष्ट नहीं थी, इसीसे एक रूप अमलात्मा परमहंस मुनियों के चित्त को भी आकर्षण कर लेता है l
              भगवत्कृपा के आश्रय से युक्त विशेष साधना और चित्तशुद्धि के बिना भगवान् का दर्शन होना बहुत ही कठिन है l भगवद्दर्शन तो साधन-सोपान कि सीमा है l यह कैसे हो सकता है कि हम सीढ़ियों पर पैर भी न रखें और ऊपर चढ़ जाएँ l इसलिए जब तक काम-क्रोधादि विकार बने हुए हैं - जब तक भगवत्कृपा का पूर्ण आश्रय नहीं है, तब तक यह नहीं मानना चाहिए कि हमें यथार्थ भगवद्दर्शन हो गया l यह दूसरी बात है कि किसी पुरुष के जन्मान्तर के कोई ऐसे ही पुण्य-संस्कार हों कि उसे दिव्य अनुभव और चमत्कार दिखाई देने लगें l


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रविवार, सितंबर 02, 2012

भाग्यवान और अभागे कौन हैं ?




  

       आज जिसको अपना मानकर छाती से लगाया जाता है वही कल हाथ से निकल कर पराया हो जाता है  l यहाँ कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सदा हमारे साथ रहे l या तो वह चली जाती हैं या उसे छोड़कर हम चले जाते हैं l तुम्हारे पास आज धन है और कभी-कभी  - मैं देखता हूँ - तुम्हें उस धन का अभिमान भी होता है l लोग तुम्हें भाग्यवान कहते हैं तो तुम्हें बड़ा सुख मिलता है l परन्तु भैया ! सच पूछो तो धन से कोई भी 'भाग्यवान' नहीं होता l संसार के धन, मान, प्रतिष्ठा, अधिकार सभी कुछ हों और हों  भी प्रचुर परिमाण में,  परन्तु मन यदि भगवान् के श्रीचरणों में न लगा हो तो वस्तुत: वह 'अभागा' ही है l भाग्यवान तो वस्तुत: भगवच्चरण अनुरागी ही है l तुम्हें जो धन का अभिमान होता है यह भी तुम्हारी बड़ी गलती है l फिर तुम्हारे पास तो धन है ही कितना  ? तुमसे बहुत बड़े-बड़े धनि अब भी दुनिया में बहुत-से हैं l अब से पहले ऐसे ही कितने हो गए हैं, जिनके धन-राशि का कोई पार नहीं था l पर आज उनका वह अनन्त ऐश्वर्य कहाँ है ? यह भगवान् की चीज़ है, तुम्हें तो मिली है - भलीभांति रक्षा करते हुए इसे भगवान् की सेवा में लगाने के लिए l तुम इसके व्यवस्थापक हो स्वामी नहीं l तुम्हारा तो बस, यही काम है कि तुम व्यवस्थापूर्वक इसे स्वामी की सेवा में लगाते रहो l इसी में धन की सार्थकता है l  और असल में इसीलिए धनीलोग भाग्यवान हैं कि उन्हें धन के द्वारा भगवत्सेवा का सौभाग्य मिला है l तुम नि:संकोच और मुक्तहस्त होकर नम्रता और विनय के साथ उनका सम्मान करते हुए उनकी नि:स्वार्थ सेवा करो l उनसे न कुछ बदले में चाहो और न उनपर अहसान करो l  ऐसे करोगे तो जरुर 'भाग्यवान' कहलाओगे l


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शनिवार, सितंबर 01, 2012

बुद्धि और श्रद्धा






              मनुष्य को अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए, जहाँ अपनी बुद्धि काम न दे, वहां बड़ों से या जिन पर अपनी श्रद्धा हो - पूछकर उनकी अनुमति से काम करना चाहिए l यद्यपि अच्छे पुरुष जान-बूझकर अनुचित नहीं कहते; पर भूल तो सबसे होती है l ये दोनों ही बातें ठीक हैं l तथापि बुद्धि और श्रद्धा दोनों की ही आवश्यकता है l बुद्धिवाद भी इतना बढ़ जाना बहुत हानिकर होता है, जहाँ अभिमानवश अपनी बुद्धि के सामने सब की बुद्धि का तिरस्कार किया जाना लगे l और श्रद्धा भी इस रूप में नहीं परिणत हो जनि चाहिए, जिससे इश्वर, सत्य और सदाचार के विरुद्ध मत को किसी के कहनेमात्र से स्वीकार कर लिया जाये l मर्यादित रूप से बुद्धि हो और यह भी माना जाये की इश्वर की सन्तानों में सम्भवत: मुझसे भी अधिक बुद्धिमान पुरुष हो चुके हैं और हो सकते हैं l
               मेरी धारणा में तो बुद्धिवाद की अपेक्षा श्रद्धा बहुत ही ऊँची और उपादेय वस्तु है, परन्तु उसकी कसौटी यही है की इश्वर या सत्य का श्रद्धालु कभी पाप का आचरण नहीं कर सकता l बुद्धिवादियों में भी यह भाव रहना आवश्यक है की वे अपने लिए अपनी बुद्धि से काम लेने का जितना अधिकार समझते हैं उतना ही दूसरों के लिए भी माने, चाहे वे निम्न श्रेणी के लोग माने जाते हों या कम विद्या-प्राप्त  हों l इसमें कोई संदेह नहीं की आँख मूंदकर तो किसी की बात नहीं माननी चाहिए, तथापि कुछ ऐसी बातें भी जगत में होती हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती, पर सत्य होती हैं और जिस पर हमारा भरोसा होता है,उसके विश्वास पर हमें उनको स्वीकार भी करना पड़ता है और स्वीकार करना भी चाहिए l
                इसी प्रकार ईश्वरीय साधन-क्षेत्र में भी है - मैं तुम्हें विश्वास दिलाकर कह सकता हूँ l  इसमें कोई संदेह नहीं की आजकल ढोंग बहुत ज्यादा बढ़ गया है, जिससे यह निर्णय नहीं हो सकता की श्रद्धा, किस पर की जाये l जिस पर श्रद्धा की जाती है, प्राय: वही ठग, स्वार्थी, कामी, क्रोधी या लोभी निकलता है l भेड़ की खाल में भेड़िया साबित होता है l इसलिए विश्वास तो खूब ठोक-पीटकर करना चाहिए और यथासाध्य सचेत रहना चाहिए तथा इस बात पर भरोसा करके अपनी बुद्धि से पूरा काम लेना चाहिए l ईश्वर का आश्रय लेकर अपनी बुद्धि से काम लेनेवाला निरहंकारी पुरुष कभी नहीं ठगा सकता  l    

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)