'महापुरुष' और 'महात्मा' शब्द आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं l मेरी समझ में ऐसा आता है कि शाक्तिसम्पन्न सच्चे महापुरुष या महात्मा का एक बार का दर्शनमात्र ही मनुष्य के कल्याण के लिए पर्याप्त होता है l मैं तो ऐसे महापुरुषों की चरणरज को बार-बार नमस्कार करता हूँ और समझता हूँ कि उनकी चरण-रज का प्रसाद-कण मुझे मिला करे तो मैं धन्य हो जाऊं l
मनुष्य इस से अधिक और कुछ कर भी नहीं सकता l वह जी न चुराकर लगन के साथ जितना बन सके उतना किये जाये, तो शेष सब भगवान् आप ही कर-करा लेते हैं, परन्तु इतना याद रहे कि साधन या पुरुषार्थ के बल पर भरोसा न रखे l भरोसा रखना चाहिए भगवान् की अनन्त कृपा पर ही l किसी भी साधन के मूल्य पर भगवान् या भगवत्प्रेम नहीं ख़रीदा जाता l भगवान् या भगवत्प्रेम अमूल्य निधि है, उसकी कीमत कोई चुका ही नहीं सकता l भगवान् जब मिलते हैं, जब अपना प्रेम देते हैं - तब केवल कृपा से ही l वे देखते हैं, 'पानेवाले की इच्छा को और उसकी लगन को' l यदि उसकी इच्छा सच्ची और अनन्य होती है, और यदि वह अपनी शक्ति भर तत्परता के साथ लगा रहता है तो भगवान् अपनी कृपा के बल से उसके सारे विघ्नों का नाश करके बड़े प्यार से उसको अपनी देख-रेख में रख लेते हैं और स्वयं अपने निज-स्वरुप से उसके योगक्षेम का वहन करते हैं l
कृत्रिमता या धोखा नहीं होना चाहिए, और अपनी शक्ति भर कमी नहीं होनी चाहिए फिर चाहे साधन हो बहुत थोड़ा ही, वही भगवत प्रसाद की प्राप्ति के लिए काफी होता है l और भगवतप्रसाद उसकी कमी को आप ही पूर्ण कर लेता है l साधन पर तो जोर इस लिए दिया जाता है कि मनुष्य भूल से कहीं आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यता को हो निर्भरता न मान बेठे, कहीं तमोगुण को ही गुणातीतावस्था न समझ ले l जो यथार्थ में भगवान् पर निर्भर करते हैं उनके लिए किसी भी साधन का कोई मूल्य नहीं है, उनके तो सारे कार्य भगवतप्रसाद से ही होते हैं, और वह ऐसे विलक्षण होते हैं कि किसी भी साधन से वैसे होने की सम्भावना नहीं है l कहाँ भगवत्कृपा और कहाँ मनुष्यकृत तुच्छ साधन l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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