आप के अन्दर जब तक दोष है, तब तक अपने को कभी उत्तम नहीं समझना चाहिए l सारे दोषों का मिट जाना मालूम होने पर भी दोषों की खोज करनी चाहिए, तथा जरा-सा भी दोष शूल की तरह हृदय में चुभना चाहिए l जब तक किंचितमात्र भी दूषित भाव हृदय में रहे, तब तक सूरदास जी की भांति अपने को महान पातकी ही मानकर प्रभु के सामने रोना चाहिए l मनुष्य शायद न सुने, किसी की भाषा का मर्म न समझ सके, परन्तु भगवान् में ये सब बातें कोई-सी नहीं हैं l वह सुनते हैं, सबके हृदय की भाषा का रहस्य समझते हैं, लापरवाही भी नहीं करते और सर्व प्रकार दोष-दुःख दूर करने के उनमें पूर्ण सामर्थ्य भी है, इसलिए मनुष्य को अपने दोष-दुखों का नाश करने के लिए प्रभु से ही प्रार्थना करनी चाहिए l प्रभु अन्तर्यामी हैं, परन्तु प्रार्थना किये बिना,उनके द्वारा सदा किया जानेवाला उपकार हम पर प्रकट नहीं होता l इसमें कोई सन्देह नहीं कि चींटी के चाल के बदले में भगवान् इच्छागति गरुड़ की चाल से ही आते हैं, परन्तु चींटी की भी चाल से उनकी ओर चाल पड़ना तो हमारा ही कार्य है l उनकी तरफ अपनी ही चाल से चलना शुरू कर दें, फिर भगवान् अपनी चाल से चलकर उसके पास बात-की-बात में पहुँच जायेंगे l हमारी मन्द गति के बदले में वे अपनी तेज चाल नहीं छोड़ेंगे l परन्तु उनकी ओर चलना, उन्हें चाहना होगा पहले हमें l भगवान् में अनन्य प्रेम की भिक्षा अनन्य प्रेमी भगवान् से ही माँगनी चाहिए l यदि अभिलाषा सच्ची होगी तो अनन्य प्रेम अवश्य मिलेगा l अनन्य प्रेम की आपको अभिलाषा है, यह बड़े ही सौभाग्य और आनन्द की बात है l भगवान् में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होने की अभिलाषा से बढ़कर कोई सौभाग्य भरी उत्तम अभिलाषा नहीं है l यह सर्वोच्च अभिलाषा है जो मोक्ष तक की अभिलाषा को लात मार देने के बाद उत्पन्न होती है l भगवत्प्रेम पंचम पुरुषार्थ है, जो मोक्ष की इच्छा के भी त्याग से होता है और जिसके परे श्री भगवान् के सिवा और कुछ भी नहीं है l विशुद्ध और अनन्य प्रेम की महत्ता कौन कहे, यह प्रेम प्रेमार्नव भगवान् से ही मिलता है l दूसरे किस में शक्ति है, जो इस का व्यापार करे l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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