दोष तो मनुष्य में आ ही गए हैं और तब तक उनका पूरा नाश नहीं होता जब तक कि भगवत-साक्षात्कार न हो जाये l सत्संग, शुद्ध सात्विक वातावरण, भजन आदि से दोष दब जाते हैं, वैसे ही छिप जाते हैं जैसे अच्छे शासक के राज्य में चोर-डाकू; परन्तु वे सहज ही मरते नहीं l यदि बाहर से कोई सहायक या साथी न मिले और लगातार दबते ही चले जाये तो क्षीण होते-होते अन्त में वे मरण तुल्य हो जाते हैं, सिर उठाने लायक नहीं रहते और फिर भगवत साक्षात्कार होते ही सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, फिर उनकी जड़ ही नहीं रह जाती l परन्तु जब तक ऐसा नहीं होता तब तक उनसे सावधान ही रहना चाहिए l इसका उपाय यही है कि सदा-सर्वदा शुद्ध वातावरण में रहे, सत्संग का पहरा रखें और भजन के द्वारा उन्हें दबाता चला जाये l ऐसा न होने से, द्वार खुला रखने और पहरा न बैठाने से अर्थात विषयमोहपूर्ण वातावरण में रहने और सत्संग न करने से बाहर के दोष आते रहते हैं जिनसे अन्दरवालों को बल मिलता रहता है l ऐसे ही नए दोषों के आते रहने से पुराने उभर पड़ते हैं, बलवान हो जाते हैं और नयों को भी बलवान बना देते हैं l इसलिए जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे बड़ी सावधानी के साथ नए दोषों को समीप आने न देना चाहिए और सदा जाग्रत रहकर पुरानों को मारने का प्रयत्न करते रहना चाहिए l जरा-सी ढिलाई पते ही मौका मिलते ही इर्द-गिर्द में छिपे हुए नए दोष आकर पुरानों को प्रबल कर देंगे और जगत में मनुष्य-जीवन के लिए इससे बढ़कर और कोई हानि नहीं है l संसार का बड़े-से-बड़ा ऐश्वर्य प्राप्त होने पर भी यदि ये दोष रह जाते हैं और मनुष्य भगवान् कि ओर नहीं लग पाता तो उसका जीवन व्यर्थ ही नहीं, भावी दुःख के कारण रूप पाप बटोरने का साधन हो जाता है l वह यहाँ और वहां कहीं भी शान्ति नहीं पा सकता, मोहवश किसी-किसी समय शान्ति मान बैठता है l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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