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विषयों का कहीं अन्त आता ही नहीं, भला इनसे किसको शान्ति मिली है ? ये तो ज्यों-ज्यों मिलेंगे त्यों-ही-त्यों कामना की आग को भड़काते ही रहेंगे l ज्वाला और पाप बढ़ेंगे, घटेंगे नहीं l यह ध्रुव सत्य है l मनुष्य मोह से ही इनमें शान्ति और शीतलता खोजता है l आखिर किसी-न-किसी समय भगवत्कृपा से उसको इनसे निराशा होती है; तब वह उज्स शाश्वत, नित्य और सत्य सुख-शान्ति की खोज में लगता है, और तभी उसका जीवन सच्ची साधना की ओर अग्रसर होता है l दोष और पापों का जन्म तो होता है इस विषय आसक्ति से l इससे बचना चाहिए, और इसके बदले में विषय विरागपूर्वक भगवद चरणों में आसक्ति पैदा करनी चाहिए l वस्तुत: वे ही बडभागी नहीं हैं l भले ही उनके पास औरों की अपेक्षा विषय सम्पत्ति कहीं प्रचुर हो l आग जितनी बड़ी होगी, उतनी ही अधिक भयानक होगी, यह याद रखना चाहिए l
धन में तो एक विशेष प्रकार का नशा होता है तो मनुष्य की विचारशक्ति को प्राय: भ्रमित कर देता है l उसकी बुद्धि चक्कर खा जाती है l इसी से वह अशुभ में शुभ और अकल्याण में कल्याण देखता है l हाँ यदि संसार के सब कर्म शुद्ध और निष्कामभाव से केवल भगवत्पूजा के लिए ही होते हों तो अवश्य ही वे बाधक नहीं होते l वैसी स्थिति में धन कमाना और विषय सेवन करना भी बुरा नहीं है बल्कि उससे भी लाभ होता है, परन्तु यह होना है कठिन l 'राग-द्वेष न हो, शरीर-मन-इन्द्रियां पूर्णरूप में वश में हों l किसी विषय पर मन-इन्द्रियां न चले, कर्तव्य वश भगवत्सेवा के लिए ही बिना किसी आसक्ति के और द्वेष के निर्दोष विषयों का सेवन हो तो उससे प्रसाद की प्राप्ति होती हैं l ' और प्रसाद से सारे दुखों का नाश हो जाता है l परन्तु संसार में ऐसे कितने विषय सेवी हैं जो इस प्रकार विषयों को भगवान् की पूजा की सामग्री बनाकर केवल भगवत्कृपा के लिए ही उनका अनासक्त भाव से सेवन करते हैं l भगवान् पर विश्वास रखकर साधन में लगे रहिये l फिर वे आप ही बचा लेंगे l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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