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भगवान् का विधान








        इसमें सन्देह नहीं कि संसार में जो कुछ होता है, वह भगवान् कि इच्छा से ही होता है, उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता l साथ ही यह भी सत्य है कि भगवान् परम दयालु हैं, वे सम्पूर्ण जगत का कल्याण ही चाहते हैं l वे कभी ऐसी इच्छा नहीं कर सकते कि जगत में प्राणी कष्ट भोगे, उनकी निर्दयतापूर्वक हत्या होती रहे l
          ये बातें ऊपर से देखने पर परस्पर विरुद्ध-सी प्रतीत होती हैं, किन्तु हैं दोनों ही सत्य l  इस रहस्य को समझना आवश्यक हैं l  भगवान् में स्वत: कोई इच्छा नहीं होती l वे स्वरूपत: पूर्णकाम और कृतकृत्य हैं l  जिसे कुछ पाना या करना शेष हो, वही इच्छा करता है अथवा उसी के मन में इच्छा या कामना का उदय होता है l भगवान् के लिए तो 'नानवाप्तमवाप्तव्यम' है, उन्हें न कोई वस्तु अप्राप्त है और न पाने योग्य है; फिर उनमें इच्छा कैसे रहे, ऐसे इच्छारहित भगवान् में इच्छा पैदा करते हैं हमारे अपने कर्म l हमारे द्वारा जो नाना प्रकार के कर्म होते रहते हैं, उनमें शुभ और अशुभ - सभी तरह की क्रियाएँ होती हैं l सुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुःख है l  जो जैसा कर्म करे, उसे वैसा फल मिले - यह भगवान् का ही बनाया हुआ नियम है l  अशुभ का दण्ड इसलिए है कि हम अशुभ से दूर रहें l  शुभ का पुरस्कार इसलिए है कि हम शुभ कर्म ही करें l  दण्ड देने में भगवान् न तो जीव के प्रति कोई द्वेष है और न पुरस्कार देने में किसी जीव के प्रति उनका राग ही है l वे तो कर्मफलों की व्यवस्था मात्र कर देते हैं l  इसलिए उन्हें निर्दयता और विषमता का दोष नहीं दिया जा सकता l
            जब अधिक जीवों के बुरे प्रारब्ध-कर्म एक साथ फल देने को उन्मुख हो जाते हैं, तब अकाल, महामारी तथा पारस्परिक संघर्ष आदि के द्वारा उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है l  आप कहेंगे, 'इसमें भगवान् की दया कहाँ रही ? वे तो न्यायधीश की भान्ति  फैसलामात्र सुना देते हैं l ' ये भान्ति-भान्ति के कर्म अपने पाश में बंधकर जीव को भगवान् से पृथक किये हुए हैं l  भगवान् उन कर्मों के फल भुगताकर यह चाहते हैं कि जीव इनके बन्धन से छूट जाएँ l 'ये मुझसे पृथक हो अस्वस्थ या अपदस्थ हो गए हैं; पुन: इन्हें अपने स्वास्थ्य अथवा पद की प्राप्ति हो' - यही उन दयामय प्रभु की इच्छा है l

सुख-शान्ति का मार्ग (३३३)                    

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