आज जिसको अपना मानकर छाती से लगाया जाता है वही कल हाथ से निकल कर पराया हो जाता है l यहाँ कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सदा हमारे साथ रहे l या तो वह चली जाती हैं या उसे छोड़कर हम चले जाते हैं l तुम्हारे पास आज धन है और कभी-कभी - मैं देखता हूँ - तुम्हें उस धन का अभिमान भी होता है l लोग तुम्हें भाग्यवान कहते हैं तो तुम्हें बड़ा सुख मिलता है l परन्तु भैया ! सच पूछो तो धन से कोई भी 'भाग्यवान' नहीं होता l संसार के धन, मान, प्रतिष्ठा, अधिकार सभी कुछ हों और हों भी प्रचुर परिमाण में, परन्तु मन यदि भगवान् के श्रीचरणों में न लगा हो तो वस्तुत: वह 'अभागा' ही है l भाग्यवान तो वस्तुत: भगवच्चरण अनुरागी ही है l तुम्हें जो धन का अभिमान होता है यह भी तुम्हारी बड़ी गलती है l फिर तुम्हारे पास तो धन है ही कितना ? तुमसे बहुत बड़े-बड़े धनि अब भी दुनिया में बहुत-से हैं l अब से पहले ऐसे ही कितने हो गए हैं, जिनके धन-राशि का कोई पार नहीं था l पर आज उनका वह अनन्त ऐश्वर्य कहाँ है ? यह भगवान् की चीज़ है, तुम्हें तो मिली है - भलीभांति रक्षा करते हुए इसे भगवान् की सेवा में लगाने के लिए l तुम इसके व्यवस्थापक हो स्वामी नहीं l तुम्हारा तो बस, यही काम है कि तुम व्यवस्थापूर्वक इसे स्वामी की सेवा में लगाते रहो l इसी में धन की सार्थकता है l और असल में इसीलिए धनीलोग भाग्यवान हैं कि उन्हें धन के द्वारा भगवत्सेवा का सौभाग्य मिला है l तुम नि:संकोच और मुक्तहस्त होकर नम्रता और विनय के साथ उनका सम्मान करते हुए उनकी नि:स्वार्थ सेवा करो l उनसे न कुछ बदले में चाहो और न उनपर अहसान करो l ऐसे करोगे तो जरुर 'भाग्यवान' कहलाओगे l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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