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मैत्री-भावना कीजिये








          आप धर्म के लिए कष्ट सहन कीजिये और भगवान् से कातर प्रार्थना कीजिये l प्रार्थना में बड़ी शक्ति है, उससे मनुष्य का ह्रदय पलट सकता है l  शरीर का अन्त कर देने से तो दुःख मिटेंगे नहीं, वह तो एक नया भयानक अपराध होगा और उसका बड़ा भीषण परिणाम परलोक में भोगना पड़ेगा l यह सत्य है कि चरों ओर से ठुकराए जाने पर मनुष्य का चित्त अत्यन्त विकल हो जाता है और उसे बुराई ही सूझती है; परन्तु ऐसी स्थिति में ही धैर्य कि आवश्यकता है l आप अपने मन से किसी को विरोधी न मानकर अपना कर्मफल मानिए और बार-बार सद्भावना करके उन लोगों के मन के जहर को मारिये l  यदि प्रतिदिन मनुष्य कम-से-कम पाँच मिनट उस व्यक्ति के लिए, जो अपने से विरोध रखता है तथा बुरा बर्ताव करता है, भगवान् से प्रार्थना करे कि 'भगवन ! उसके चित्त से मेरे प्रति जो द्वेष है, उसे आप दूर करके निकाल दीजिये और मेरे मन में कभी उसके प्रति दुर्भाव न आये, मैं उसे अपना विरोधी मानूँ ही नहीं, मुझे उसके  अन्दर आप का मधुर दर्शन हो और उसकी क्रिया में आपका मंगल-विधान दिखाई दे - ऐसी शक्ति दीजिये l मेरा कोई वैरी न हो, सब के प्रति मेरे मन में मित्रभाव हो l '  तो इस प्रकार प्रार्थना और सद्भाव करने पर विरोधी व्यक्तियों का विरोध नष्ट हो जाता है और धीरे-धीरे वे मित्र बनने लगते हैं l अपने मन की विरोध-भावना विरोधियों की संख्या तथा विरोधी भाव बढाती है और अपने मन की मैत्री-भावना मित्रों की संख्या तथा मैत्री-भावना बढाती है l  यह अटल सत्य है, प्रयोग करके देखिये l  आत्महत्या की तो बात ही सोचना पाप है l  धैर्य रखिये, भगवान् के नाम का जप कीजिये और कातर भाव से  विश्वासपूर्वक भगवान् से प्रार्थना कीजिये l शेष भगवत्कृपा  l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)          

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नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

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