जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, सितंबर 22, 2012

अवतार रहस्य



 


       जो अवतारवाद को नहीं मानते, वे यह दलील देते हैं कि शरीर धारण करने से ईश्वर एकदेशीय हो जाता है l पर वस्तुत: यह कथन ठीक नहीं है l  एकदेशीय कल्पना जड़ देश में होती है l  भगवान् का स्वरूप चिन्मय है l  वे ज्ञानमय प्रकाश के पुंज हैं l  उनका शरीर, उनके आयुध-आभूषण - सभी दिव्य एवं चिन्मय हैं l  वे साकार होकर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं l  अतएव वे एकदेश में दिखाई देते हुए भी सर्वदेशीय तथा सर्वव्यापी हैं l  यही भगवान् कि विशेषता है कि उनमें सब प्रकार के विरोधी गुणों का तथा भावों का समन्वय होता है l
          यधपि भगवान् के सदृश व्यापक दूसरी कोई वस्तु नहीं, जिसका दृष्टान्त उपस्थित किया जाये, तथापि अवतारवाद को कुछ हदतक  समझने के लिए अग्नि का दृष्टान्त दिया जाता है l अग्नि परमाणु रूप से सर्वत्र व्यापक  है l  काष्ठ आदि सभी वस्तुओं में उसकी सत्ता है l  इस प्रकार निराकार रूप से सर्वत्र व्याप्त अग्नितत्व एक ही है, तो भी वह दियासलाई आदि की सहायता से अनेक स्थानों पर या एक स्थान पर साकाररूप में प्रकट  होता  है l  इस प्रकार एक देश में प्रकट होकर भी वह अन्यत्र नहीं है - यह बात नहीं कही जा सकती l  इसी प्रकार भगवान् भी एकदेश में साकाररूप से प्रकट होकर भी निराकार रूप से अन्यत्र सब स्थानों में विद्यमान हैं l अग्नि की दो शक्तियां  हैं  - दाहिका शक्ति और प्रकाशिका शक्ति l  अग्नि का प्रकाट्य जहाँ कहीं भी होता है, वहां ये दोनों शक्तियां पूर्णरूप से विद्यमान रहती हैं l  इसी प्रकार भगवान् - सर्वव्यापी परमात्मा जहाँ भी प्रकट होते हैं, अपनी सम्पूर्ण शक्ति साथ लेकर ही प्रकट होते हैं l  अत: भगवान् के अवतार-विग्रह में एकदेशीय या अल्पशक्ति होने का दोष नहीं आ सकता  l  जैसे प्रकट अग्नि और अप्रकट अग्नि एक ही है, उसी प्रकार साकार और निराकार एक ही तत्व हैं, इनमें कोई पार्थक्य नहीं है; अतएव साकार विग्रह भी सर्वव्यापी ही है l
        ईश्वर सर्वत्र है, अत: वह अपने लिए ऐसा नियम कभी नहीं बनाता, जिसे कभी तोड़ने की आवश्यकता पड़े l  वह आविर्भाव और तिरोभाव की शक्ति से युक्त है, अत: अवतार-ग्रहण उसके लिए नियमविरुद्ध नहीं है l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)