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अवतार रहस्य



 


       जो अवतारवाद को नहीं मानते, वे यह दलील देते हैं कि शरीर धारण करने से ईश्वर एकदेशीय हो जाता है l पर वस्तुत: यह कथन ठीक नहीं है l  एकदेशीय कल्पना जड़ देश में होती है l  भगवान् का स्वरूप चिन्मय है l  वे ज्ञानमय प्रकाश के पुंज हैं l  उनका शरीर, उनके आयुध-आभूषण - सभी दिव्य एवं चिन्मय हैं l  वे साकार होकर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं l  अतएव वे एकदेश में दिखाई देते हुए भी सर्वदेशीय तथा सर्वव्यापी हैं l  यही भगवान् कि विशेषता है कि उनमें सब प्रकार के विरोधी गुणों का तथा भावों का समन्वय होता है l
          यधपि भगवान् के सदृश व्यापक दूसरी कोई वस्तु नहीं, जिसका दृष्टान्त उपस्थित किया जाये, तथापि अवतारवाद को कुछ हदतक  समझने के लिए अग्नि का दृष्टान्त दिया जाता है l अग्नि परमाणु रूप से सर्वत्र व्यापक  है l  काष्ठ आदि सभी वस्तुओं में उसकी सत्ता है l  इस प्रकार निराकार रूप से सर्वत्र व्याप्त अग्नितत्व एक ही है, तो भी वह दियासलाई आदि की सहायता से अनेक स्थानों पर या एक स्थान पर साकाररूप में प्रकट  होता  है l  इस प्रकार एक देश में प्रकट होकर भी वह अन्यत्र नहीं है - यह बात नहीं कही जा सकती l  इसी प्रकार भगवान् भी एकदेश में साकाररूप से प्रकट होकर भी निराकार रूप से अन्यत्र सब स्थानों में विद्यमान हैं l अग्नि की दो शक्तियां  हैं  - दाहिका शक्ति और प्रकाशिका शक्ति l  अग्नि का प्रकाट्य जहाँ कहीं भी होता है, वहां ये दोनों शक्तियां पूर्णरूप से विद्यमान रहती हैं l  इसी प्रकार भगवान् - सर्वव्यापी परमात्मा जहाँ भी प्रकट होते हैं, अपनी सम्पूर्ण शक्ति साथ लेकर ही प्रकट होते हैं l  अत: भगवान् के अवतार-विग्रह में एकदेशीय या अल्पशक्ति होने का दोष नहीं आ सकता  l  जैसे प्रकट अग्नि और अप्रकट अग्नि एक ही है, उसी प्रकार साकार और निराकार एक ही तत्व हैं, इनमें कोई पार्थक्य नहीं है; अतएव साकार विग्रह भी सर्वव्यापी ही है l
        ईश्वर सर्वत्र है, अत: वह अपने लिए ऐसा नियम कभी नहीं बनाता, जिसे कभी तोड़ने की आवश्यकता पड़े l  वह आविर्भाव और तिरोभाव की शक्ति से युक्त है, अत: अवतार-ग्रहण उसके लिए नियमविरुद्ध नहीं है l


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)                

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