जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, सितंबर 23, 2012

गुरु किसको करें ?





 

        ब्राह्मण के लिए यदि ब्राह्मण ही गुरु मिल जाये तो वह सर्वोत्तम है l केवल ब्राह्मण का ही नहीं, समस्त वर्णों का गुरु ब्राह्मण है  -  'वर्णानाम ब्राह्मणो गुरु: l ' किन्तु यदि ब्रह्मनिष्ठ, भगवत्प्राप्त  एवं गुरुचित गुणों से संपन्न ब्राह्मण गुरु न मिल सके तो उक्त गुणों वाले क्षत्रिय अथवा वैश्य से भी श्रद्धापूर्वक परमार्थ पथ का  उपदेश लिया जा सकता है - यह बात शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है l छान्दोग्योपनिषद  में कथा आती है - 'आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु तथा स्वयं आरुणि ने भी पंचालराज प्रवाहण से उपदेश ग्रहण किया था l ' पंचालराज क्षत्रिय थे आरुणि ब्राह्मण l  इसी प्रकार महाभारत में कथा आती है कि एक तपस्वी ब्राह्मण ने किसी पतिव्रता देवी के भजने से व्याध के पास जाकर उपदेश ग्रहण किया था l  एक कथा है - एक ब्राह्मण  ने तुलाधार वैश्य के पास जाकर उपदेश देने के लिए उनसे प्रार्थना की थी  l इतना ही नहीं, उन्हें माता-पिता में भक्ति रखनेवाले एक चाण्डाल के यहाँ भी उपदेश लेने के लिए जाना पड़ा था l  ये सभी अपवाद-स्थल हैं l  तात्पर्य इतना ही है कि वास्तव में गुरु उत्तम वर्ण का होना चाहिए l  अभाव में निम्नवर्ण के योग्य पुरुष कि शरण लेने में भी कोई हानि नहीं है l
          ईश्वर प्राप्ति  अथवा मोक्षमार्ग में प्रवृत करानेवाले गुरु का महत्व सबसे बढ़कर है l  साधन-सम्बन्धी उपदेश उन्हीं से लेना और उसका दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए l  अन्य संत-महात्माओं तथा गुरुजनों से भी सत्संग के तौर पर उत्तम बातें लेने में कोई हर्ज नहीं है l सत्संग से साधन में रूचि बढती है और दृढ़ता आती है l अत: वह प्रत्येक साधक के लिए लाभदायक है l
          कुल परम्परा से यदि  घर में श्री विष्णु की अथवा देवी की पूजा होती चली आ रही हो तो उसका पालन होना ही चाहिए l  कुल के प्रत्येक व्यक्ति को उस परम्परा की रक्षा में सहयोग करना चाहिए l इसके अतिरिक्त अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार जिन्हें ह्रदय के सिंहासन पर बिठाया है, उन श्रीकृष्ण अथवा श्री राम आदि इष्टदेव की पूजा भी करनी चाहिए l

सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)