जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

मंगलवार, सितंबर 25, 2012

माता-पिता का अपमान पाप है






         आज भी ऐसे लोग हैं, जो पिता-माता के महत्व को समझ कर उनके प्रति अपने द्वारा होने वाले अपराधों का प्रायश्चित करना चाहते हैं l  खेद की बात यह है कि अब ऐसा बुरा समय आ गया कि लोग पिता-माता के प्रति भी कटु शब्द कहते संकोच नहीं करते, उन्हें गालियाँ देते समय उनकी वाणी कुण्ठित नहीं होती और उनका अपमान करके भी वे पश्चाताप कि आग में नहीं जलते l
         एक समय वह था, जब पिता कि आज्ञा दूसरे के मुख से सुनकर भी भारतीय युवक बड़े-से-बड़े साम्राज्य को भी लात मार जंगल में निकल जाते थे, माता-पिता को कन्धों पर बिठाकर तीर्थ कराते और उनको भगवान् समझकर नित्य-निरन्तर उनकी सेवा, उनकी आराधना में संलग्न रहते थे l
         शास्त्रों  में माता-पिता को उपाध्याय और आचार्य से भी ऊँचा स्थान  दिया गया है l  भगवान् मनु कहते हैं - 'पिता प्रजापति स्वरूप है तथा माता पृथ्वी की प्रतिमूर्ति है  l मनुष्य कष्ट में पड़ने पर भी कभी इनका अपमान न करे l  माता और पिता पुत्र-जन्म के लिए जो क्लेश उठाते हैं, उसके पालन-पोषण में जो कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला पुत्र सैकड़ों वर्षों तक उनके सेवा करके भी नहीं चुका सकता l  जिसने माता-पिता और आचार्य को प्रसन्न कर लिए, उसकी सम्पूर्ण तपस्या पूरी हो गयी l उनकी सेवा ही सबसे बड़ी तपस्या है l उनकी अनुमति के बिना कितने ही बड़े दूसरे धर्म का अनुष्ठान क्यों न किया जाये , वह सफल नहीं होता l  माता की भक्ति से इस लोक को, पिता की भक्ति से मध्यम लोक को और गुरु की भक्ति से ब्रह्मलोक को मनुष्य जीत लेता है l जिसने इनका आदर किया, उसके द्वारा सब धर्मों का आदर हो गया l जिसने इनको अपमानित किया, उसके समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं l पुत्र के लिए माता-पिता की सेवा ही परम धर्म है l
          इस प्रकार शास्त्रों में माता-पिता की महिमा गायी गई है, उनकी सेवा का महात्मय बताया गया है और उनके तिरस्कार से घोर पाप की प्राप्ति कही गई है l  यह तो हुई शास्त्र की बात, लोकदृष्टि से विचार किया जाये तो मनुष्य के लिए माता-पिता से बढ़कर उपकारी और हितेषी कौन हो सकता है l  उनका अपमान करने पर किस अभागे पुत्र को ग्लानि नहीं होती होगी ?


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)  
गीता प्रेस, गोरखपुर