जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

गुरुवार, सितंबर 27, 2012

भगवान् में सब कुछ है

भगवान् में सब कुछ है


आज से हजारों वर्ष पूर्व महाराज ययाति ने भी ऐसा ही अनुभव प्राप्त किया था l  वे विषयभोग से विषयतृष्णा का दमन करना चाहते थे l  जीवन में यह प्रयोग करके उन्होंने देखा, किन्तु अन्त में उन्हें निराशा ही हाथ लगी l वे इस परिणाम पर पँहुचे  कि विषयों का उपभोग विषयेच्छा रुपी अग्नि को प्रज्वलित करने में घी का काम करता है l  इस अनुभव के बाद वे उधर से हट गए l शेष जीवन उन्होंने भगवान् की आराधना में बिताया, इससे वे परम कल्याण के भागी हुए l आप को भी मैं यही सलाह दूंगा, भगवान् के प्रति आपने मन में आकर्षण पैदा कीजिये l  रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द - ये सभी विषय अनन्त और दिव्याति दिव्यरूप में भगवान् में हैं l  आप-अपने मन से कहिये - वह भगवान् की ओर लगे, उन्हीं का चिन्तन करे l  वहां एक ही जगह उसे सब कुछ मिल जायेगा, उसकी सारी कामनाएं पूर्ण हो जाएँगी l आजकल समय देखते हुए तो यही मार्ग निरापद जान पड़ता है l
          आप चाहते हैं - वीर्य की   ऊधर्वगति हो, आप के लिए मन में ऊधर्वरेता  बनने की साध है l किन्तु आप समय पर चूक गए हैं l योग-साधन का सबसे बड़ा सहारा है -ब्रह्मचर्य - वीर्य का संरक्षण l  किन्तु उसी पर आपने तुषारपात कर दिया है l पता नहीं, आप की अवस्था अब क्या है और आप ने जीवन का कितना समय कामान्धता में बर्बाद किया है l यह जानने पर ही कोई उपयोगी सलाह दी जा सकती थी l  ऊपर जो परामर्श दिया गया है, वह सब के लिए सभी अवस्थाओं में परम मंगलदायक है l  भगवान् गीता में कहते हैं - 'पहले का कितना ही दुराचारी क्यों न हो, जो अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, वह साधू ही मानने योग्य है, क्योंकि उसे उत्तम निश्चय कर लिया है l ' अब उसके राह पर आने में - धर्मात्मा बनने में देर नहीं है l -
                                                     'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा  ll '
 योग-विद्या और कुण्डलिनी-शक्ति को जगाने की विधि मुझे ज्ञात नहीं है, न मैं किसी अनुभवी योगी अथवा प्रामाणिक योग आश्रम का ही पता जानता हूँ l  अत: इस विषय में आप को कोई राय नहीं दे सकता l आप संसार में रहकर निवृतिमय जीवन बिताना चाहते हैं तो भगवान् की शरण ग्रहण कीजिये l यही मंगलमय और निष्कंटक मार्ग है l             


सुख-शान्ति का मार्ग(३३३),गीता प्रेस, गोरखपुर