कुछ महत्वपूर्ण जिज्ञासाओं का समाधान
किसी वस्तु में श्रद्धा अथवा प्रेम तभी होता है, जब हमें उसकी लोकोत्तर महत्ता का ज्ञान हो l भगवान् के प्रति श्रद्धा और प्रेम की कमी इसीलिए है कि अभी उनके महत्त्व को हमने पहचाना नहीं l आज का संसार जो 'अर्थ' और 'भोग' के पीछे पागल हो रहा है, इसका क्या कारण है कि उसके लिए अर्थ और भोग ही जीवन में महत्त्व की वस्तुएँ हैं l ऐसे लोगों ने अर्थ और भोग को जितना महत्त्व दिया है, उतना भी महत्त्व भगवान् को नहीं दिया l हम भगवान् को पाना चाहते हैं, उनमें श्रद्धा और प्रेम करना चाहते हैं - ये सब केवल कहने की बात रह गयी है l यदि हम वास्तव में इस बात को जान लें कि भगवान् को पाना ही जीवन का चरम उद्देश्य है, उनसे विलग या विमुख होने के कारण ही हमें नाना प्रकार के दुःख-क्लेश घेरे रहते हैं, एकमात्र भगवान् ही अक्षय सुख के भण्डार हैं, वे ही जीव की चरम और परम गति है, तो हम भगवान् से मिले बिना एक क्षण भी चैन से नहीं बैठ सकते l अनादि-काल से विषय-भोगों में ही रमते रहने के कारण हमारे अंत:करण में उन्हीं के संस्कार जमे हुए हैं; उसमें भगवान् के भजन की बात बैठती ही नहीं l इसके लिए हमें सत्संग रुपी गंगा की पवित्र धारा में अवगाहन करना चाहिए l तभी अंत:करण की मलिनता धुल सकेगी l गीता, रामायण, श्रीमद्भागवत तथा भक्तिप्रधान ग्रन्थों का स्वाध्याय, भगवन्नाम जप और नामकीर्तन आदि भी भगवान् के प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ाने में बड़े सहायक हैं l
सुख-शान्ति का मार्ग(३३३), गीता प्रेस, गोरखपुर