कर्मफल का नियामक ईश्वर
यों तो 'ब्रह्मवेदम सर्वम' सब कुछ परमात्मा ही है l इस सिद्धांत के अनुसार कोई ऐसी वस्तु नहीं , जो ईश्वर से भिन्न हो l सम्पूर्ण जड़-चेतन-प्रपंच - कार्य-कारण, करता - करण, कर्म और उसका फल तथा उस कर्मफल के नियामक - सब कुछ ईश्वर ही बने हुए हैं l सर्वत्र ईश्वर हैं, साधा ईश्वर हैं और सब ईश्वर हैं l फिर भी वे सब से विलक्षण हैं l उनका वैलक्षन्य क्या है - इसका विवेचन आरम्भ होने पर हम ईश्वर की उन्हीं विशेषताओं पर दृष्टि रखेंगे, जो अन्यत्र नहीं उपलब्ध होतीं l सामान्यता सृष्टि को दो भागों में विभक्त किया जाता है - जड़ और चेतन l जड़ दृश्य है , चेतन दृष्टा l जड़ नियम्य है और चेतन नियामक l जड़ परतंत्र है और चेतन स्वतन्त्र l जड़ नाशवान , परिवर्तनशील और अनेक रूप है l चेतन अमर, अपरिणामी और एकरस है l इस प्रकार के विश्लेषण को 'दृष्ट - दृश्य - विवेक' कहते हैं l अब आप स्वयं ही देखें - कर्म जड़ कोटि में है या चेतन कोटि में l कर्म का आरम्भ होता है , उसकी समाप्ति होती है ; अत: वह अनित्य है l ईश्वर अनादि , अनन्त और नित्य है l फिर कर्म ईश्वर कैसे हो सकता है ? कर्म होने के बाद नष्ट हो जाता है ; अत : वह स्वयं कुछ कर नहीं सकता , उसका संस्कार शेष रह जाता है अथवा अदृष्ट रूप से वह शेष रहता है - यों कहें तो भी संस्कार या अदृष्ट भी जड़ ही है l कौन कर्म कैसा है , किसका कैसा कर्मफल होगा और वह कब मिलेगा - इसका ज्ञान सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर के सिवा किसको रह सकता है l इसलिए यही मानना ठीक है कि ईश्वर ही कर्मफल का नियामक है l
सुख-शान्ति का मार्ग (३३३), गीताप्रेस गोरखपुर