आपको जो दर्शन हुए हैं वे दूसरे प्रकार के अर्थात भावनाजन्य नहीं थे; बल्कि स्वयं श्रीहरि ने ही आपके भक्तिभाव को बढ़ाने के लिए कृपालु होकर दर्शन दिए हैं l ऐसा हो तो बड़ी प्रसन्नता की बात है l फिर तो आप में स्वभावत:ही दैवी सम्पत्ति आ जानी चाहिए थी l भला, भगवान् स्वयं जीव का उद्धार करना चाहे और उसमें विलम्ब हो - यह कैसे सम्भव है ? अबोध बालक ध्रुव को जब प्रभु ने दर्शन दिए तो इच्छा होने पर भी अपनी अल्पज्ञता के कारण वे उनकी स्तुति न कर सके l प्रभु उनका भाव समझ गए l उन्होंने ध्रुव के कपोल से अपने वेदमय शंख का स्पर्श कराया और तत्काल ही ध्रुव पूर्ण बोधवान होकर भगवान् की स्तुति करने लगे l
आपकी कोई भावना तो थी नहीं, इसलिए ध्यानजनित दर्शन तो ये हो नहीं सकते l मेरी समझ में ये साक्षात् दर्शन भी नहीं थे; भगवान् को साकाररूप से भजा जाये अथवा निराकाररूप से - इसमें कोई खास अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही तो एक ही भगवान् के स्वरुप हैं और दोनों ही का समान महत्व है l जब इस प्रकार आपको सगुन निष्ठां शिथिल सिद्ध हो जाती है तो इसमें भी कोई कारण नहीं है कि उसके बाद आपकी जो निर्गुण निष्ठां हुई, वह पुष्ट ही थी l वह पुष्ट नहीं थी, इसीसे एक रूप अमलात्मा परमहंस मुनियों के चित्त को भी आकर्षण कर लेता है l
भगवत्कृपा के आश्रय से युक्त विशेष साधना और चित्तशुद्धि के बिना भगवान् का दर्शन होना बहुत ही कठिन है l भगवद्दर्शन तो साधन-सोपान कि सीमा है l यह कैसे हो सकता है कि हम सीढ़ियों पर पैर भी न रखें और ऊपर चढ़ जाएँ l इसलिए जब तक काम-क्रोधादि विकार बने हुए हैं - जब तक भगवत्कृपा का पूर्ण आश्रय नहीं है, तब तक यह नहीं मानना चाहिए कि हमें यथार्थ भगवद्दर्शन हो गया l यह दूसरी बात है कि किसी पुरुष के जन्मान्तर के कोई ऐसे ही पुण्य-संस्कार हों कि उसे दिव्य अनुभव और चमत्कार दिखाई देने लगें l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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