जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

रविवार, सितंबर 30, 2012

मानव-जीवन का लक्ष्य - भगवत्प्राप्ति







           भगवान् ने कहा है - 'माया बड़ी दुस्तर है l इस माया से कोई भी सहज में पार नहीं हो सकता, परन्तु मेरे शरणापन्न व्यक्ति इस माया से तर जाते हैं l ' भगवान् के अतिरिक्त जो कुछ भी है - असत है, माया है और उसको जीवन से निकालना है l भगवान् के शरणापन्न होने पर जीवन में से यह मिथ्यापन निकल सकता है l  मानव-जीवन में यही एकमात्र करनेयोग्य कार्य है l मानव-जीवन का यही एकमात्र कर्तव्य और उद्देश्य है l
           धन की प्राप्ति चाहनेवाला मनुष्य जैसे स्वाभिविक ही क्षुद्र-सी भी धनहानि के प्रत्येक प्रसंग से बचता है और लाभ का प्रत्येक कार्य करता है; वह ऐसा इसलिए करता है कि पैसे के रहने और मिलने में अपना लाभ मानता है और जाने में  या न रहने हानि; इसी प्रकार भगवान् का भजन करनेवाला पुरुष भजन होने में लाभ तथा न होने में हानि मानता है l इसलिए वह स्वाभाविक ही वही करता है जिससे भजन बनता और बढ़ता है, वह ऐसा कार्य कभी नहीं करता, जिससे भजन नहीं बनता या घट जाता है l
            हम सभी आत्यन्तिक सुख चाहते हैं l  ऐसा सुख चाहते हैं जो अनंत हो, परन्तु मोहवश चाहते वहां से हैं, जहाँ सुख है नहीं l अथवा उससे, जो सुख का बहुत बड़ा स्वांग तो बनाये हुए है; पर है दुःख से पूर्ण l जहर से भरी हुई मिठाई मीठी लगती है निस्संदेह, पर वह मारनेवाली ही होती है l  जहर का ज्ञान न होने से या ज्ञान होने पर भी स्वाद के लोभ से लोग उसे खा लेते हैं l मीठी है तो क्या; उसका घातक प्रभाव तो होगा ही l  भोग-जगत भी ठीक ऐसा ही है l इसीलिए भगवान् ने इन्द्रिय-भोगों को भोगकाल में अमृत के समान और परिणाम में विष के सदृश मारनेवाला बताया है l ' यह जगत सुखरहित है, अनित्य है और वस्त्रालय, विधालय, औषधालय की तरह  'दुःख का आलय' है और 'दुःख योनि' - दुखों की उत्पत्ति का स्थान है l  इस सुखरहित, दुखालय तथा दुखों के क्षेत्र-जगत से सुख-प्राप्ति की आशा करके, केवल आशा ही नहीं, आस्था रखकर, हम उसके लिए रात-दिन प्रयत्नशील रहते हैं l यह हमारा बड़ा भारी मोह है l  यह आशा, यह आस्था, यह कल्पना वैसे ही मिथ्या है, जैसे जहर को मिटाने के लिए जहर का प्रयोग, अन्धकार को निकालने के लिए दीपक का बुझा देना l तेल की आशा से बालू को कितना ही पेरा जाये, बालू काजल-सी महीन होकर उड़ सकती है, पर तेल नहीं मिलेगा l इसीलिए नहीं मिलेगा कि उसमें तेल है ही नहीं l सुखरहित भोग से सुख कि प्राप्ति असम्भव है  l  दुखालय और दुःख योनि जगत से सुख कि आशा ही अज्ञान है - मोहान्धकार है l


मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)