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गीता सम्बन्धी विचार





               यहाँ 'जानने' का अर्थ अपरोक्ष रूप से जानना अथवा अनुभव है l केवल शब्दज्ञान का नाम  ज्ञान नहीं है l किसी शहर को नक़्शे में देख लेने से उनकी स्थिति का ज्ञान तो हो जाता है, पर क्या इसीसे  कोई कह सकता है कि मुझे उन नगरों के ठीक-ठीक ज्ञान हो गया ? उनका ठीक ज्ञान तो वहां रहने वालों को ही होता है l इसी प्रकार जिनकी बुद्धि कि वृति प्रकृति  के तीनों गुणों से ऊपर उठ गयी है, उन्हीं को पुरुष का वास्तव ज्ञान हो सकता है और वही ठीक-ठीक प्रकृति के त्रिगुणमय रूप को समझ सकता है l   जो स्वयं तीनों  गुणों से बंधा हुआ है वह त्रिगुणातीत पुरुष को तो क्या, गुणों के रूप को भी ठीक नहीं जान सकता l इसलिए शब्दों को नहीं, शब्द जिनका प्रतिपादन करते हैं, उन पुरुष और प्रकृति रूप अर्थों को जानने से ही पुरुष ज्ञानी कहा जा सकता है l
                 प्रकृति तो जड़ है, अत: वह तो किसी के अनुकूल या प्रतिकूल क्या होगी l इसलिए यहाँ प्रकृति का भावार्थ 'भगवदिच्छा' या 'प्रारब्ध' समझना चाहिए l  हम जो कर्म करते हैं उसी का प्रारब्ध बनता है, इस समय जो प्रारब्ध बना हुआ है वह भी पहले किसी किये हुए कर्म का ही परिणाम है l वास्तव में मानव-जीवन विभिन्न कर्मों के संघर्ष का स्थान है l यदि हमारा वर्तमान पुरुषार्थ प्रबल होता है तो लवः फल्दानो उन्मुख प्रारब्ध को दबा देता है और यदि पुरुषार्थ शिथिल होता है तो प्रारब्ध उसे दबा देता है l रही परम स्वतन्त्र भगवदिच्छा - सो उसकी तो बात दूसरी है l असल में तो भगवान् कि इच्छा का स्वरुप भगवान् ही बता सकते हैं l हम तो यह भी ठीक नहीं बता सकते कि भगवान् में इच्छा है भी या नहीं - परन्तु यदि इच्छा है तो यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि वह भी भक्ति के परतन्त्र है l इसके सिवा अन्य पुरुषों के प्रति भी भगवान्  कि इच्छा उसके कर्मों के अनुरूप ही होती है l अत: यही मानना उठित है कि अपना प्रबल प्रयत्न हो तो अवश्य भगवदिच्छा में भी परिवर्तन हो सकता है l

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)

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